22॰ परिशिष्ट
22॰ परिशिष्ट
साक्षात्कार
भारतीय ज्ञानपीठ व पद्मविभूषण से सम्मानित कवि
सीताकान्त महापात्र से डॉ.प्रसन्न कुमार बराल द्वारा ओड़िया
भाषा में लिए गए साक्षात्कार का हिन्दी अनुवाद
जीवन-परिचय:-
1953 से 2015 के अंतराल के भीतर कितने वर्ष गुजर गए,पता ही नहीं चला। माहांगा के कुशीदा गाँव से
रेवेन्सा, वहाँ से इलाहाबाद और उसके बाद कितने ही
देश-विदेशों का भ्रमण। कहने की आवश्यकता नहीं कि अपने जीवन काल में कितने
राष्ट्रों का उन्होंने भ्रमण किया होगा। यही वजह है कि ओड़िया रामायण, महाभारत, भागवत, तपस्विनी जैसे ग्रन्थों को पढ़ने, सुनने और अध्ययन करने की साहित्यिक जिज्ञासा
देश-देशांतर के कोने-कोने में व्याप्त होने लगी। विश्व के सबसे ज्यादा चर्चित, समृद्ध भाषा एवं साहित्य वाले देश ओड़िया
अक्षरों के प्रति आकर्षित हुए, ओड़िया भाषा के एक-एक शब्दों
के प्रति। ओड़िया भाषा की कविताओं को
उन्होंने बिना पासपोर्ट और वीसा दिलवाए ही समग्र विश्व का भ्रमण करवा दिया।
यह वे कवि हैं, जो नन्द किशोर बल
नहीं हैं, जिन्होंने ‘छोटा मेरा गाँव’ की तरह कविता भले ही नहीं लिखी हो,फिर भी उनकी कविताओं में विशेषकर गाँव तथा
पल्ली का आकर्षक चित्रण मिलता है। कविताओं के माध्यम से एक अविश्वसनीय विश्वास के साथ चित्रोत्पला नदी ने कवि
के पॉकेट में रहते हुए सारे विश्व का भ्रमण कर लिया। शायद पृथ्वी के किसी भी ऐसे
भूखंड पर वह कभी भी खड़े नहीं हुए होंगे, जहां उन्होंने अपने
गाँव की मिट्टी की खुशबू, चित्रोत्पला नदी की मधुर
मूर्छना को भाव-विभोर होकर अनुभव नहीं किया होगा। उस स्वप्नशील कवि को अपने विचरण के समय आकाश के
सारे बादल अपने चिर-परिचित लगते थे। सभी पेड़-पौधे और लताओं की हरियाली मानो उनके
गाँव के छह परीले घरों पर लटकते लौकी और कद्दुओं की सर्पिल वेलों, नहीं तो, आँगन में लौकी के
आलम्ब से झूलती अवांछित हरी लताओं के गुच्छों पर अंतिम कोपलों के अधखिले पत्तों का
आकुल निवेदन कर रही हो।
उनका गाँव और पास में बहने वाली नदी मानो उनके
प्रेम का एक सांकेतिक स्वरूप हो,सारी दुनिया का प्राकृतिक
वैभव उनके लिए एक विशाल कैनवास बन गया हो। उनके अनुसार साठ साल से कलम रूपी तूलिका
से कैनवास का एक छोटा कोना भी अभी तक नहीं भरा गया। प्राकृतिक सुंदरता की नैसर्गिक
शोभा की सजीव प्रकृति से परिपूर्ण परिवेश उनके हृदय को अस्थिर करता था और उन्हें
सांथाली भाषा से प्रेम हो गया। उन्हें आदिवासियों के जीवन से भी प्रेम हो गया। उस
प्रेम से उनके खुले हृदय से गाए गए गीतों में प्राकृतिक माधुर्य भर दिया। “जहां मनुष्य,वहाँ देवता”, “जहां प्रकृति, वहाँ उपासना” वाली विचारधारा को उन्होंने किसी भी भौगोलिक
सीमा सरहद के भीतर बांध कर नहीं रखा। उनके विश्वास में मनुष्य इस धरती का है, सारी दुनिया का है। शब्दों की खोज में एक जीवन
पर्याप्त नहीं है। पुनर्जन्म की बिलकुल भी इच्छा नहीं होते हुए भी एक अक्षर के लिए, एक शब्द के अनुसंधान के लिए वे पुनर्जन्म की तीव्र आकांक्षा लेकर
व्याकुल हो उठते हैं। परम्पराएँ, भले ही, उनकी पृष्ठभूमि रही हो, मगर आधुनिकता उनका महत्त्वपूर्ण दृष्टिकोण है। छह
ह दशकों की काव्य-यात्रा करने वाला यह कवि अभी भी अक्षर और शब्दों की प्रतीक्षा करता है।
हाँ पाठकों! इस बार गोधूली लग्न में “आमने-सामने साक्षात्कार” स्तम्भ में शब्द और समय का अनुपम चित्रण
करने वाले कवि सीताकान्त महापात्र हमारे अतिथि हैं। इस स्तम्भ में
सीताकान्त को अतिथि बनाते समय मन में हजारों सवाल उठ रहे थे, क्योंकि शायद ही कोई एक अनालोचित दिशा उनकी
सृष्टि के विशाल परिसर के अंदर रही होगी, जिस पर उन्होनें
पहले कुछ कहा न हो अथवा उन पर समालोचना नहीं हुई हो। विगत पचास-साठ सालों की दीर्घ साहित्यिक यात्रा
के दौरान सीताकान्त जी की मुलाक़ात विश्व के अति प्रतिभाशाली, ज्ञानी और गवेषकों से हुई तथा उनसे उन्होंने
बहुत सारी अनकही बातों का ज्ञान-भंडार अनजाने राज्य के रूप में प्राप्त किया।
ओड़िशा के बाहर देश-विदेश में भी सीताकान्त जी
ने स्पष्ट भाव से उनसे संबन्धित प्रश्नों के सटीक उत्तर दिए। वे सारे उत्तर जितने
निर्भीक है, जितने उज्ज्वल है, उतने ही विनम्र, उतने ही नमन योग्य
है। सीताकान्त के सृजन-संसार की विशालता के कारण कभी-कभी उनका पूरी तरह आकलन नहीं
किया जा सकता। कविता, गद्य-रचना, समीक्षा, आलोचना, यात्रा-वृतांत, अनुवाद, सम्पादन, आदिवासी-साहित्य और
संस्कृति से संबन्धित साहित्य के अतिरिक्त मानव-विज्ञान पर भी सीताकान्त जी का असाधारण पांडित्य है, जबकि कभी भी उन्होंने अपने जीवन में
एंथ्रोपोलोजी विषय नहीं पढ़ा। नहीं पढे हुए विषय के ऊपर न केवल उनका अध्ययन सराहनीय
है बल्कि उच्चकोटि के शोध-संदर्भ में उनके आलेखों ने विश्व के प्रसिद्ध
विश्वविद्यालयों का ध्यान आकर्षित किया है।
किसी एक अंश को आधार बनाकर उनके साक्षात्कार का
पूरा विवरण प्रस्तुत करने की संभावना का अर्थ है, हमें वास्तव में
वृत्त की परिधी पर रचे हुए उनके रचना-संसार, व्यक्तिगत जीवन, नौकरी की अवधि, सुख-दुख, पश्चाताप के चारों ओर घूमकर जानकारी प्राप्त
करना।
सीताकान्त के संबंध में यह सारा विवरण लिखते
समय हमें संकोच और भय मिश्रित अनुभव हो रहे हैं क्योंकि इन प्रसंगो पर आलोचना करने
का हमने निश्चय किया है, उन सभी के गंभीर अध्ययन के
अभाव में यह संकोच होना स्वाभाविक है, इसमें हमारी किसी भी
प्रकार की कुंठा नहीं है।
दुनिया के प्रत्येक कोने-कोने में विश्व के
समस्त समृद्ध भाषाओं में सीताकान्त जी को जो मान्यता मिली है, उसमें व्यक्तिगत रूप से सीताकान्त जी के द्वारा
ओड़िया भाषा को मिलने वाला गौरव हमारे लिए
परम सौभाग्य की बात है। इसके अतिरिक्त सांथाली, हो, मुंडारी, खड़िया जैसी आदिवासी भाषाओं को सीख कर उनके मौखिक
गीतों को आत्मसात कर सीताकान्त के निष्ठापूर्वक उद्यम को सरल भाषा में केवल
अविश्वसनीय ही कहा जा सकता है। जीवन जीने के लिए सजिन्दगी भरे उन आदिवासी गीतों का संपादन और
अँग्रेजी अनुवाद (They sing life) जैसे क्लिष्ट
कार्यों को सफल अंजाम देना उनकी प्रकृति और परम्पराओं के प्रति
असीम प्रेम का परिचय देते हैं। उन्होंने बहुत प्यार किया है शब्द, अक्षर और समय को। सीताकान्त के अद्यतन कविता-संग्रह “प्रत्येक अक्षर में मेरा पुनर्जन्म” के प्रथम पृष्ठ में उनकी कविताओं, उनकी पंक्तियों, कवि-जीवन की तमाम
कविताओं को लेकर देखे हुए सपने, संभावना, दर्शन, नैराश्य, असहायता और उच्चारण का वर्णन इस कविता में साफ
देखने को मिलता है
प्रत्येक अक्षर में मेरा
पुनर्जन्म
मेरी मृत्यु प्रत्येक शब्द
के कोने में।
मेरे जीवन की प्रतिध्वनि
प्रतिक्षण प्रति-उच्चारण में
स्वप्न और दृश्य के सम्मोहित सातवें आँगन में
ऐसे सपनों के लिए भला
रात कहाँ,दिन कहाँ
इस दृश्य के लिए।
शिक्षा और वृत्ति :- बाल्य जीवन और स्कूल की पढ़ाई अपने गाँव कुशीदा में
सम्पन्न हुई थी। यह वही कुशीदा है, जहां के फकीर मोहन सेनापति
मूल वासिंदा थे। अत्यंत मेधावी सीताकान्त कोरुया सरकारी हाईस्कूल से उत्तीर्ण होकर चले
आते हैं कटक के रेवेंसा कॉलेज में। पहले दो साल विज्ञान की पढ़ाई करके आइ॰एससी॰ पास
करने के बाद इतिहास ऑनर्स के साथ वहाँ से बी॰ए॰ तक पढ़ाई पूरी करके एम॰ए॰ पढ़ने के
लिए वह चले जाते हैं इलाहाबाद विश्वविद्यालय को। 1957 से 1959 तक स्नातकोत्तर राजनीति विज्ञान में उत्तीर्ण
होने के बाद दो साल उत्कल विश्वविद्यालय में अध्यापन कार्य किया। 1961 में सर्वभारतीय सिविल सर्विस परीक्षा में
सर्वोच्च अंकों के साथ उत्तीर्ण कर भारतीय प्रशासनिक सेवा में योगदान देने लगे। ओड़िशा
राज्य सरकार के विभिन्न विभागों में सचिव के तौर पर
सफलतापूर्वक काम करते हुए केंद्र सरकार के अधीन डेपुटेशन पर चले
गए। भारत सरकार के संस्कृति मंत्रालय के सचिव की सेवाएँ देते हुए 1995 में सरकारी नौकरी से सेवा-निवृत्त हुए।
आई॰ए॰एस॰ नौकरी के प्रारम्भिक चरण में ओड़िशा के दो प्रमुख आदिवासी बहुल जिलों सुंदरगढ और मयूरभंज के जिलापाल के रूप में कार्य
करते समय वहाँ की ट्राइबल स्टडीज़(tribal studies) और गवेषणा उनके
साहित्यिक कार्यों के लिए एक भित्तिभूमि बनकर उभरी।
इसके अलावा,तरह-तरह की फ़ेलोशिप
और पद-पदवी से वे हावार्ड ओर केंब्रिज विश्वविद्यालय से जुड़े। दो बार
होमी भाभा फ़ेलोशिप प्राप्त ट्राइबल स्टडीज़ के ऊपर आधारित
उनकी शोधपरक पुस्तक के दो भाग ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी प्रेस
से प्रकाशित हुए। सीताकान्त यूनेस्को वर्ल्ड
डेकड़ फॉर कल्चरल डेवलपमेंट के सभापति तथा नेशनल बुक
ट्रस्ट,इंडिया के चेयरमैन बने।
प्रकाशित कविता संग्रह और
अन्य पुस्तकें –
सीताकान्त की सृजन-सृष्टि अत्यंत ही विशाल और विपुल है।
खासकर कवि के रूप में उन्हें प्रसिद्धि मिली, मगर उनकी गद्य-रचना, अनुवाद, मौलिक-आलेख, यात्रा-वृत्तांत, समीक्षा, समालोचना तथा शोध के ग्रन्थों की संख्या भी कुछ
कम नहीं है, जिन्हें विशेष
प्रसिद्धि प्राप्त न हुई हो। सीताकान्त उँगलियों पर गिने जाने वाले बहुत कम भारतीय
साहित्यकारों में अन्यतम है, जिनकी किताबों के अनुवाद
सारे विश्व की प्रतिष्ठित भाषाओं के माध्यम से विश्व के कोने-कोने में पहुंचे।
जिनके अंतर्गत अँग्रेजी, स्पेनिश, फ्रेंच, जर्मन, चाइनीज, रसियन, हिब्रू, रोमानियन, अरबी, डेनिस, स्वीडीश प्रमुख हैं।
1953 में अपने जीवन की
पहली कविता लिखने वाले सीताकान्त का प्रथम कविता-संग्रह ठीक 10 साल के बाद अर्थात 1963 में प्रकाशित हुआ, जिसका नाम था दीप्ति और द्युति। उनका अद्यतन
कविता संकलन 6 माह पहले “प्रति अक्षररे मोर पुनर्जन्म (2014)” के रूप में प्रकाशित हुई। 1963 से 2015 के भीतर सीताकान्त
के 24 कविता-संकलन प्रकाशित हुए, जिनमें ‘अष्टपदी (1967)’, ‘शब्द आकाश (1971)’, ’समुद्र (1977)’, ‘चित्रनदी (1979)’, ‘आरदृश्य (1981)’, ‘समय र शेष नाम(1984)’, ‘काहाकु पुछिबा कुह (1987)’, ‘चढ़ेइ रे तू कि जाणु(1990)’, ‘फेरि आसिबार बेल (1991)’, ’श्रेष्ठ कविता (1992)’, ‘वर्षा सकाल (1993)’, ‘पदचिन्ह (1996)’, ‘मृत्युर असीम धैर्य (1997)’, ‘निर्वाचित कविता (1998)’, ‘कपट पाशा (2000)’, ‘प्रदक्षिण (2002)’, ‘सारा जीवन लोकटा (2004)’, ‘भारतवर्ष (2005)’, ‘छातितल फरुआरे कुनि (2006)’, और ‘कुनि चढ़ेई:भिन्न
आकाश (2006)’ आदि बहुत पठित और प्रशंसित काव्य-संकलन है।
सीताकान्त जी का गद्य संसार में ‘भिन्न आकाश और भिन्न दीप्ति’, ‘निसंग मनुष्य’, ‘शब्द, स्वप्न और निर्भीकता’, ‘अंधार
झोटी चिता’, ‘समय र आरपारि’, ‘संस्कृति:आम समय’ तथा ‘अनेक शरत’ प्रमुख हैं। यात्रा-वृत्तांत के तौर पर पाठकों
को आकर्षित करने वाली पुस्तक “अनेक शरत” एक उल्लेखनीय और प्रशंसनीय कृति बनी है। 5 प्रबंध संकलन, 22 अँग्रेजी भाषा में समालोचना, जीवनी, चित्रकला और आलेखों
पर आधारित पुस्तकें सम्मिलित हैं। इसके अलावा, ‘दे सिंग लाइफ’ और ‘अनएंडिंग रिदम’ की तरह चर्चित मौखिक आदिवासी गीतों
के 10 ग्रंथ संकलन तथा अनुवाद भी प्रकाशित हुए हैं।
सीताकान्त द्वारा अनूदित और संपादित (दोनों ओड़िया और अँग्रेजी) के संकलनों की संख्या 19 है। सीताकान्त जी द्वारा संपादित और अनूदित कुछ
ओड़िया पुस्तकों में सारहूलर जह्न, सूर्यदृष्टा, मगध और अन्यान्य कविता, असरंति पिलादिन, वसंत ऋतूरे दिने, शालगछह फुलरे नइंछी, कविता: पिलादिन, आधुनिक हंगरीय कविता
तथा जन्हराति ओ अन्यान्य कविता मुख्य हैं।
पुरस्कार एवं मान्यता :-
कवि सीताकान्त महापात्र का रचना-संसार जितना
व्यापक और वैविध्यपूर्ण है, उतनी ही उनकी पुरस्कार और मान्यता की तालिका दीर्घ है। देश
के समस्त सारस्वत पुरस्कारों के अतिरिक्त उन्हें भारत का द्वितीय सर्वोच्च नागरिक
पुरस्कार “पद्मविभूषण” प्राप्त हुआ है।
उनका समूचा जीवन समस्त पुरस्कारों को समेटता रहा है। जिसकी समय-सीमा 1971 के ओड़िशा साहित्य अकादेमी पुरस्कार से 2013 भारत के सर्वोच्च साहित्य पुरस्कार के रूप में
केन्द्रीय साहित्य अकादमी की फ़ेलोशिप मिलना शामिल है। जिसके अंतर्गत 1993 का भारतीय ज्ञानपीठ पुरस्कार शामिल है।
सीताकान्त महापात्र को मिलने वाले पुरस्कार और सम्मानों की तालिका इस प्रकार है: -
1 – ओड़िशा
साहित्य अकादमी
2 – केंद्र साहित्य
अकादमी
3 – ओड़िशा साहित्य
अकादमी प्रबंध
4 – विश्व हिन्दी
सम्मेलन पुरस्कार
5 – सोवियत देश नेहरु
पुरस्कार
6 – कुमारन आसन कविता
पुरस्कार
7 – विषुव पुरस्कार
8 – सारला पुरस्कार
9 – ओड़िया संस्कृति परिषद पुरस्कार
10- भारतीय ज्ञानपीठ
पुरस्कार
11 – मराठी साहित्य
सम्मेलन पुरस्कार
12 – गंगाधर मेहेर जातीय
पुरस्कार
13 – योशुआ साहित्य
पुरस्कार
14 – कबीर सम्मान
15 – जापान के सोका
विश्वविद्यालय का सर्वोच्च सम्मान
16 – भारत सरकार के
प्रदत्त ‘पद्मभूषण’
17 – ‘पद्मविभूषण’ सम्मान
18 – केंद्र साहित्य
अकादमी फ़ेलोशिप
साक्षात्कार के
अंश:-
(प्रश्न॰1) – अपने भीतर काव्य-सत्ता की उपस्थिति को आपने किस उम्र में अनुभव किया, उस बिरले अनुभव को अगर शब्दों में ढाला जाए तो
आप उस पर क्या कहना चाहेंगे?
कवि सीताकान्त महापात्र- जी, वास्तव में यह एक
बिरला अनुभव है। जो कुछ इस विषय पर मैं कहना चाहता हूँ, उस अनुभव को उन शब्दों का सटीक विवरण दे पाऊँगा
या नहीं मेरे कृतित्व के परे हैं। फिर भी यह कहना चाहूँगा कि यह अनुभव मुझे अपने
स्कूल जीवन से प्राप्त हुआ था। उस समय मैं स्कूल में पढ़ा करता था। उस समय एक अध्यापक थे, उनका नाम था गोपाल मिश्र। उनके प्रयास से स्कूल
में प्रकाशित होने वाली एक हस्तलिखित पत्रिका को देखकर मैं साहित्य की ओर
आकृष्ट हुआ। उस समय मैं पिताजी की रामायण, महाभारत, भागवत तथा गंगाधर की कविताओं के प्रति बहुत
ज्यादा आकर्षित हुआ, उस समय के अनुभव को भुलाया
नहीं जा सकता। घर, परिवार और गाँव में जिस बोलचाल की भाषा का
व्यवहार किया जाता था, उसे मैंने एक अनन्य ढंग से अनुभव करते
हुए प्रयोग में लाना शुरू किया। आज भी मुझे अच्छी तरह याद है, मेरी माता की प्रतिदिन कहे जाने वाली अनेक
नीतिज्ञान की बातें। कभी-कभी जब मैं उदास होता था, वह कहती थी “अरे जाल में फंसी हुई चिड़िया की तरह क्यों बैठे
हो!” ऐसे सारे अनुभव जितने मैं आपको बताता हूँ, फिर भी मुझे ऐसा लगता है, बहुत कुछ अनकहा छूटा रह जाता
है।
डॉ॰प्रसन्न कुमार बराल(प्रश्न॰2):- आपने अपनी कविताओं
में गाँव, नदी, प्रकृति, विशेषकर चित्रोत्पला पर चित्रांकन किया है, इन सभी चीजों के अलावा परिवार, परिवेश और अन्य संबंधियों ने आपको किस तरह
प्रभावित किया है?
कवि सीताकान्त महापात्र:- गाँव, परिवेश, प्रकृति और
चित्रोत्पला नदी के प्रति मैं अपने मोह को भाषा में अच्छी तरह व्यक्त नहीं कर सकता।मैं जीवन भर प्रकृति
प्रेमी रहा हूँ। पेड़-पौधे, जंगल, नदी, पहाड़, पर्वत जिस तरह मुझे
आकर्षित कर पागल कर देते हैं, उन्हें शब्दों में व्यक्त करने का सामर्थ्य
मुझमें नहीं है। इस प्रकृति के भीतर नीरस जीवन जीने वाले आदिवासी शायद इसलिए मेरे लिए
इतने प्रिय हैं। बाकी रह गई बात निर्दिष्ट नदी चित्रोत्पला की। जिस दिन से मैं समझने लगा हूँ, चित्रोत्पला मेरे जीवन में इस तरह अंतरंग हो गई मानो मेरे भीतर
लहू बनकर बह रही हो और मेरे मन मस्तिष्क की समस्त स्नायु ग्रंथियों पर अपनी
उपस्थिति का गहरा प्रभाव छोड़ते हुए जा रही हो। मैंने सारी दुनिया भ्रमण किया है। देश-विदेश के
नदी, समुद्र, जल-प्रपात सभी को
जब-जब मैं देखता हूँ तब-तब चित्रोत्पला को मैं अपने हृदय में पाता हूँ। मुझे याद
नहीं पड़ता कि बिना मैं अपने गाँव और चित्रोत्पला को लिए कभी कहीं समय बिताया हो। परिवेश और
आस-पास के मनुष्यों के प्रभाव से क्या कभी मुक्त होना संभव है ?
(डॉ॰प्रसन्न कुमार
बराल ने सीताकान्त महापात्र का चित्रोत्पला नदी के प्रति विशेष प्रेम दर्शाने के
लिए गोधूलि लग्न में दो ओड़िया कविताओं “पुनर्जन्म” तथा “चित्रोत्पला : प्रेम
की एक चिट्ठी” का समावेश किया है, जिसका मेरे द्वारा किया गया अनुवाद हिन्दी
पाठकों के लिए निम्न हैं)
पुनर्जन्म
चित्रोत्पला के किनारे
कदंब-पेड़ की छांव में
बैठे-बैठे, कभी-कभी
जाने-अनजाने, अपने-आप
नींद आ जाती।
और
नींद में नौका विहार करते
चित्रोत्पला के गीत
सुनते-सुनते
समुद्र की सैर करने लगता।
समुद्र को प्रणिपात कर
फिर से चित्रोत्पला के उल्टे
स्रोत को
लौट आता उस नाव में बैठ
अपने परिचित तट पर
अपने गाँव के कदंब पेड़ की
छांव में।
नींद टूट जाती कबूतर के
गुटर-गूँ से
उस आवाज में बचपन के दिन
यौवन, वार्धक्य, दिन-रात, सुबह-शाम
सब एक साथ तरोताजा हो जाते
जैसे नारियल से खेलते
तालाब में तैरते,
ऑफिस में किसी को आवाज देते,
माता-पिता के खोने का भीषण
क्रंदन
जैसे चित्रोत्पला से शिकायत
करते हुए
क्यों मुझे लौटा लाई समुद्र
के वक्ष-स्थल से
फिर मेरे गाँव और कदंब-पेड़
को
अगर मैं न होता तो
क्या यह सारी होनी-अनहोनी
मुझे मिलती
मेरे दुर्बल सीने में खंजर
घोंपने जैसे ?
नदी उसके कान में चुपचाप
कहती
“ये देखो ! यह तो अनंत है
अरे पगले! हमेशा से तू इतना
ही खोज रहा है
पाने को अनंत-क्षण को
क्षण के असीम अनंत को”
इतना कहते हुए खो जाता वह
स्वर
उदास शाम की नदी की तरंगों,
कोमल घास के मैदानों में
चरती गायों
और मायावी मल्हार पवन में।
उसके बाद और कैसी पृथ्वी
और कैसे गृह, तारे निहारिका ?
कैसी भाषा, कैसे शब्द
कैसी कविता और कैसा जन्मांतर?
चित्रोत्पला : प्रेम
की एक चिट्ठी
जानती हो तुम्हें अपने जेब
में रखकर
सारी दुनिया का भ्रमण करता
हूँ मैं।
देखा है मैंने तुम्हें बहते
हुए ईउफ़्रेटिस में
गंगा, डैन्यूब, सिन नदी में।
उन्हें छूते ही
तुम मिल जाती हो।
मैंने सपना देखा है
नौका से पार होते हुए
चप्पू चलाते
मगर किनारा दूर-दूर होता
जाता
और रह जाती नाव मँझधार
में ।
समय की धारा ने मुझे
बच्चे से बूढ़ा बना दिया
तुम्हें पता नहीं
अभी भी मेरे पॉकेट में
तुम प्रेम-चिट्ठी की तरह हो।
(प्रश्न॰3):- जो कोई इंसान साहित्य के प्रति आकृष्ट होता है उसी क्षण सबसे
पहले वह कविता की ओर अभिरुचि लेने लगता है। अनेक प्रतिष्ठित
कहानीकारों और उपन्यासकारों ने अपने शुरूआती समय में कविता के माध्यम से इस
सारस्वत जगत में अपनी पहचान बनाई है। क्या इसका अर्थ यह मान लिया जाए कि साहित्य
सर्जन-कर्म कविता के अति नजदीक है ?
कवि सीताकान्त महापात्र– नहीं, साहित्य सर्जन का
कार्य कविता के नजदीक है, यह मैं नहीं कहूँगा। फिर भी
गद्य-रचना से पद्यों की उम्र अधिक होने के कारण मन होने पर बाद में कविताओं के
रास्ते आगे निकला जा सकता है। यह बात सही है कि अनेक कथा-शिल्पी और औपन्यासिक अपने
लेखन जीवन के शुरूआत में कविताएं लिखते थे। मगर पहले गद्य रचना लिखकर बाद में
कवि होने वाले शिल्पियों की संख्या बहुत कम है। कौन जानता है,बहुत खोज करने के बाद हो सकता है, कुछ लोग मिल भी जाएँ। मगर मेरे विचार से
प्रत्येक कवि को गद्य लिखना बहुत जरूरी है। गद्य साहित्य की सरल बोधगम्यता पाठकों
को साहित्य के प्रति आकर्षित करती है। कविता की अनेक बातों को स्पष्ट रूप से
समझाने के लिए गद्य की आवश्यकता पड़ती है। कविता लिखने के दौरान मेरी अनेक गद्य
रचनाएँ भी लिखी गई हैं। गद्य रचनाएँ लिखने के दौरान मेरा अधिक से
अधिक यह प्रयास रहता है कि दोनों गद्य और पद्य की बीच की दूरी की
रक्षा कर सकूँ। मगर कुछ आलोचक
मेरी गद्य रचना-शैली में काव्य-धारा के संधान की बात करते हैं, जिसे वे काव्यमय गद्य के रूप में चिन्हित करते हैं। इसके अतिरिक्त, मेरे कविता संकलनों में जो भूमिका मैंने
गद्य-शैली में लिखी है उनके भीतर मेरे अनुभव, अनुभूति और साहित्य संक्रांतीय धारणा कविता की तरह प्रतिपादित होती हुई नजर
आती है। इस संक्रांति की मैंने अपनी अँग्रेजी पुस्तक ‘बेयरफुट इंटू रियलिटी’ में पूरी तरह से व्याख्या की
है।
(प्रश्न॰4):- मैंने कहीं पढ़ा है कि आपने इलाहाबाद
विश्वविद्यालय में स्नातकोत्तर की शिक्षा ग्रहण करते समय तत्कालीन यूनिवर्सिटी जर्नल सम्पादन का दायित्व संभाला था। उस समय आप
किस तरह की कविताएं लिखते थे? तत्कालीन पत्र-पत्रिकाएँ
कौन-कौन सी थी?
कवि सीताकान्त महापात्र:- 1957 से 1959 – इन दो सालों में एम॰ए॰ पढ़ने के लिए इलाहाबाद
विश्वविद्यालय गया था। जहां मुझे
यूनिवर्सिटी जर्नल का सम्पादन करने का दायित्व मिला था, उससे पहले मुझे रेवेन्सा कॉलेज में सम्पादन के
क्षेत्र की जानकारी थी। ईस्ट हॉस्टल की पत्रिका ‘जागरण’ का मैंने सम्पादन किया था और उस पत्रिका में
मेरी पहली कविता छह पी थी। इसके अलावा, मुझे याद है उस समय
रेवेन्सा की पत्रिका में मेरी एक मात्र अंग्रेजी कविता को बिधुभूषण दास ने
प्रकाशित किया था। उस समय लिखने का कार्य चल रहा था, मगर मेरी ज्यादा
कविताएं प्रकाशित नहीं हुई थीं। उस समय वहाँ रहते समय
सुमित्रा नन्दन पंत और फिराक गोरखपुरी जैसे प्रसिद्ध कवियों के साथ मेरा परिचय हुआ
था। एक बार फिराक गोरखपुरी ने मुझे अपनी कविताओं के ऊपर कई सवाल पूछे थे जैसे क्या
लिख रहे हो, किस विषय पर और कैसे लिख रहे
हो इत्यादि-इत्यादि।
(प्रश्न॰5):- ओड़िशा के प्राचीन साहित्य
से लेकर मध्य युगीन कविताओं में छंदबद्ध और लयबद्ध कविताएं देखने
को मिलती है। उसके परवर्ती समय में गिने-चुने कवियों को छोड़कर अभी की रचनाएँ उन
चीजों से दूर होती चली गई। इसके परिणाम स्वरूप ओड़िया कविताओं में पठनीयता घटती चली
गईं। क्या इस बात से आप सहमत है ?
कवि सीताकान्त महापात्र:- संगीत और छंदबद्धता
कविता के एक-एक पहलू मात्र है। इतना होने के बावजूद भी कविताओं को उस समय
बहुत लोग पढ़ते थे, कहा नहीं जा सकता है। सभी
युग में और सभी समय कविता की पाठक गोष्ठी सीमित रही है। इसका एक मुख्य कारण है
कविता में प्रयुक्त होने वाली भाषा। कवि अपने वर्णन में इस तरह की
भाषा का प्रयोग करता है जो साधारण मनुष्य की प्रतिदिन
की भाषा से अलग होती है। खासकर कवि अपनी बात रखने के लिए अनेक प्रतीकों अथवा
बिंबों का अपनी कविताओं में प्रयोग करता है। मगर मेरा यह व्यक्तिगत अनुभव है कि उन
चीजों की जरूरत नहीं होती है, उनका प्रयोग केवल
बाह्य-आडंबर में मदद करता है। जिसे मैं अनावश्यक और अयुक्तिकर मानता हूँ ।
आधुनिक काल में कविता का प्रस्तुतीकरण के लिए
पौराणिक घटनावलियों का प्रयोग अवश्य ही प्रासंगिक और तर्क-संगत है।
इसी वजह से मैंने मेरी कविताओं में उनके पौराणिक चरित्रों को लिया है जैसे कि
यशोदा। कृष्ण,यशोदा के प्रसंग को मैंने
किसी कहानी की तरह न लेकर एक अति शक्तिशाली प्रतीक के रूप में प्रयोग किया है।
मिट्टी खाने के बाद बाल-कृष्ण के मुँह के अंदर सारे ब्रह्मांड का दर्शन करने का
भाग्य यशोदा को छोड़कर किसी और को प्राप्त नहीं हुआ। इसका मतलब यह तो नहीं कि हम
यशोदा को पागल कहें? जिसके बाल गोपाल के मुँह के
भीतर ग्रह, नक्षत्र, सूर्य, चन्द्र की उपस्थिति देखी गई थी। इस प्रश्न का उत्तर किसी के पास नहीं
है। खुद यशोदा इस प्रश्न पर निरुत्तर है। मेरी कविताओं में इसी अलौकिकता का वर्णन हुआ है।
हाँ, कविता की छंदबद्धता
से दूर होने की बात पर मैं यह कहना चाहता हूँ कि जब सच्चि राउतराय ने मुक्तछंद
कविता लिखना शुरू किया था और उस समय बहुत सारे कवि प्रभावित होकर परवर्ती काल में
उसी तरह की कविताओं की रचना करने की ओर अग्रसर हुए।
(प्रश्न॰6):- ओड़िया कविताओं को राष्ट्रीय और अंतरर्राष्ट्रीय स्तर पर ले जाने वाली पृष्ठभूमि के आप एक
मुख्य स्तंभ हैं। आप और आपके समसामयिक या
परवर्ती काल के कवियों ने जो कुछ किया क्या आप उससे संतुष्ट हैं ?
कवि सीताकान्त महापात्र:- शुरू से ही आधुनिक ओड़िया
कविता एक समृद्ध और सशक्त परंपरा रही है। इसलिए आप जिसे राष्ट्रीय और
अंतरराष्ट्रीय स्तर पर ले जाने वाली
पृष्ठभूमि की बात कर रहे हैं, मेरे विचार में ऐसा कुछ भी नहीं
है। मेरे समसामयिक और मेरे परवर्ती समय के बहुत सारे प्रतिभाशाली कवियों ने अपनी
काव्य-कृतियों के माध्यम से ओड़िया कविताओं
को मान-सम्मान व प्रतिष्ठा दिलवाकर नई ऊंचाई तक पहुंचाया है। भारत की बहुत सारी
प्रादेशिक भाषाओं में लिखी गई कविताओं को पीछे छोडकर हमारे ओड़िया काव्यकारों ने एक
सम्मान जनक मुकाम प्राप्त किया है। विभिन्न भारतीय भाषाओं के प्रमुख कवियों की
तालिका में ओड़िया कवियों की मौजूदगी सचमुच में उत्साह जनक है।
(प्रश्न॰7):-आपकी काव्य प्रतिभा की एक
महत्वपूर्ण दिशा है ट्राइबल स्टडीज़ अर्थात आदिवासियों की जीवन-शैली, सांस्कृतिक परंपराओं और लोकगीतों का गहन अध्ययन। इस तरह के
कष्टसाध्य कार्य करने की प्रेरणा आपको कहाँ से मिली ?
कवि सीताकान्त महापात्र:- आई॰ए॰एस॰ की नौकरी
में मुझे ओड़िशा के दो जिलों का कलेक्टर और जिला मजिस्ट्रेट के रूप में कार्य करने का सौभाग्य प्राप्त हुआ।
जिसमें एक जिला था सुंदरगढ और दूसरा मयूरभंज। दोनों जिले आदिवासी बहुल जिले
हैं। भिन्न-भिन्न संप्रदाय के आदिवासियों के साथ प्रत्यक्ष संपर्क स्थापित करने का
अवसर मुझे इन दोनों जिले में प्राप्त हुआ।
सुंदरगढ में मेरा रहने का समय था 1967-68। राउलकेला में इस्पात कारख़ाना लगने के बाद
यद्यपि शहर काफी बढ़ गया था। आदिवासी लोग हजारों की तादाद में काम-धंधों की
तलाश में राऊरकेला आने और उसके आस-पास के इलाकों में शाम के समय गीत गाते-गाते लौट
जाने का दृश्य देखकर मैं अभिभूत हो जाता हूँ। मौखिक भाषा में गाए जाने वाले उन
गीतों में था मेरे लिए एक अद्भूत मर्मस्पर्शी आकर्षण।
मयूरभंज जिला में कलेक्टर की नियुक्ति के समय
में मैंने संथाली भाषा सीखी। भाषा सीखने की इस प्रक्रिया में संथाली से अलग ‘हो’, ‘खडिया’ और ‘मुंडारी’ भाषा मुझे समझ में आने लगी। एक बार भाषा सीख जाने के बाद उनके द्वारा गाए जाने
वाले गीत मुझे और अधिक मीठे लगने लगे। उन सभी गीतों के अंतर्गत उनके जीवन के सभी
अध्यायों और घटनाओं का वर्णन समाया हुआ था। जन्म-मृत्यु, कर्मचक्र, उत्सव, त्योहारों आदि
प्रत्येक घटना के उपलक्ष में सभी गीतों का मुक्त-कंठ से वे लोग गान करते थे। उन
सभी का मैंने जी भर कर उपयोग किया। फिर इन सभी गीतों को एकत्रित कर “दे सिंग लाइफ” शीर्षक से 9 संकलन मैंने प्रकाशित करवाए। इन संग्रहों का
अनुवाद तथा संकलन करने में मुझे 20 साल से ज्यादा का समय लगा।
ये सारे संकलन यूनेस्को रिप्रेजेंटेटिव वर्क सीरीज द्वारा प्रकाशित हुए। ये संकलन
थे ‘The empty distance carries’, ‘The wooden
sword’, ‘They sing life’, ‘Unending Rhythms’, ‘Men, patterns of dust’, ‘The
Awakened Wind’, ‘Forgive the Words’, ‘Staying is Now here’ और ‘The
Endless Wave’।
इस कार्य की प्रेरणा मुझे अपने भीतर और मेरे
चारों तरफ फैले हुए परिवेश से मिली। आदिवासी लोगों की मुक्त जीवन-धारा और जीवन के
प्रति उनकी अकृत्रिम ममत्वबोध ने मुझे गंभीर तरीके से प्रभावित किया। इस वजह से
मैं इस कार्य को अपने हाथ में लेकर अपने आपको सौभाग्यवान समझता हूँ।
(प्रश्न॰8):- आदिवासी भाषा, संस्कृति, त्यौहार तथा उनकी
जीवनधारा के अध्ययन कार्य में आपका अनुभव कैसा रहा? वास्तव में यह कार्य
कितना कष्टकारी रहा?
कवि सीताकान्त महापात्र – निस्संदेह यह अनुभव मेरे लिए उत्साहजनक था। यह
काम मुझे अच्छा लग रहा था तभी तो इस कार्य को अपने अध्ययन का आधार बनाकर शोध करने
का मैंने निश्चय किया था। आदिवासी लोगों द्वारा प्रयोग में ली जाने वाली अनेक
भाषाएँ जब मुझे समझ में आने लगी तो मैंने सबसे पहले उनकी कई कविताओं और गीतों का
संग्रह किया, उसके बाद धीरे-धीरे आदिवासी लोगों के सामाजिक
जीवन में हो रहे परिवर्तनों का गहन अध्ययन करने के लिए पूर्वी भारत के पश्चिम
बंगाल के बोलपुर तथा ओड़िशा की मयूरभंज आदि जिलों में मैंने बहुत काम किया।
यहाँ तक कि इस विषय पर मैंने मेरी पी॰एचडी॰ की थीसिस लिख डाली जो
ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी से दो भागों में ग्रंथाकार रूप में प्रकाशित हुई। पहले भाग
का नाम था ‘मार्डनाइजेशन एंड रिचुयल’ और दूसरे भाग का नाम था “द टेल्स ऑफ द सेक्रड”। गीतों और कविताओं को छोडकर आदिवासियों की “वर्ल्ड् पेंटिंग” पर भी मैंने
विस्तारपूर्वक अध्ययन किया। इस अध्ययन पर आधारित मेरी पुस्तक को ललित कला अकादमी
ने प्रकाशित किया। सालों-साल एक ही इलाके में आंतरिकता से कार्य करते समय उनके
कष्टों का या कष्टों की प्रासंगिकता मेरे हिसाब से कोई मायने नहीं रखती है।
(प्रश्न॰9) – किसी भी कवि के आपातत द्वैत सत्ता के ऊपर अक्सर
सवाल उठते है, एक उसकी अपनी
व्यक्तिगत-सत्ता तो दूसरी उसकी काव्य-सत्ता। सांसारिक जीवन जीते हुए एक मनुष्य के
लिए दो अलग-अलग भूमिकाओं में अवतीर्ण होते समय आपसी समझौते की जरूरत पड़ती है,अन्यथा अंतरात्मा में संघर्ष जन्म लेने लगता
है। वास्तव में ऐसा होता है ?
कवि सीताकान्त महापात्र:- इस दृष्टिकोण से मैं
आपको सौभाग्यशाली मानता हूँ। इस तरह के समझौते अथवा संघर्ष के बारे में मुझे कोई
भी जानकारी नहीं है। सांसारिक जीवन के भीतर एक व्यक्ति के रूप में मेरी जो भूमिका
है, उसके समानान्तर कवि कर्म
करते समय मैं अपनी भूमिका अदा करता हूँ। हाँ, यह बात अवश्य है, मेरे अध्ययन और लिखा-पढ़ी में तल्लीन होने के
दौरान मैं अपने परिवार, परिजन और भाई, बंधुओं को पर्याप्त समय नहीं दे पाता था, किन्तु यह कभी भी मेरे सामने अवरोध बनकर खड़ा
नहीं हुआ ।
(प्रश्न॰10):- ई-मेल, इन्टरनेट, सैटलाइट, टेलीविज़न की तरह कम्यूनिकेशन इंजीनियरिंग में
भी विगत कई दशकों के भीतर उनके अभूतपूर्व परिवर्तन घटित हुए है, जिसकी वजह से आम लोगों का जीवन बहुत प्रभावित
हुआ है। उसके साथ उभरकर हमारे समक्ष आया कंज्यूमेरिज़्म एंड ग्लोबलाइज़ेशन का एक
दौर। जिनके साथ कदम-ताल मिलाकर चलने के कारण मनुष्य के चरित्र में परिवर्तन होने
लगा और वह बहुत ही ज्यादा जटिल, स्वार्थी, अन्वेषी तथा आत्मकेंद्रित होने लगा है। मनुष्य
के भीतर हो रहे इस मानसिक परिवर्तन की इस प्रक्रिया में कविता (साहित्य) को आप किस
दृष्टि से देखते हैं ?
कवि सीताकान्त महापात्र:- भौतिकवाद की दृष्टि
से जो प्रगति हो रही है तथा जिस तरह से समाज उससे प्रभावित हो रहा है, उसे रोका नहीं जा सकता। उसे रोकने की आवश्यकता भी नहीं है क्योंकि यह विश्वव्यापी प्रक्रिया
सारे संसार को संकुचित करने में अपना योगदान दे रही है। सामग्रिक भाव से इससे विश्व-साहित्य लाभान्वित हो रहा है। इस परिवर्तन का प्रभाव पड़ने के
बावजूद भी कविताओं की भूमिका पहले की तरह अपरिवर्तित रहेगी। कविताएं हमेशा से मानवतावाद का जय गान करती आ रही है।
वास्तविक जीवन को पहचानने तथा मानवता के प्रति श्रद्धाभाव रखने की मनुष्य को
शिक्षा देती है। कविता के इस प्रयास को अगर मनुष्य ग्रहण कर लेता है तब भले ही वह
मनुष्य से देवता न हो पाए, मगर वह एक इस प्रकार शक्ति
का अधिकारी बन जाता है, जिसके द्वारा जीवन को यथार्थ
ढंग से जीने का रास्ता खोज सकता है। कविता के इस लक्ष्य की उपलब्धि कोई मामूली
नहीं है। प्रत्येक क्षण नए तरीके से जीवन जीने तथा प्रकृति के सारे परिवर्तनों तथा नित्य-नैमिकता के अंदर नयेपन की खोज करने का अभिनव-कौशल कविता ही मनुष्य को
सिखाती है। कविता (साहित्य) के माध्यम से मनुष्य जीने की अपनी शैली का आविष्कार
करता है। सूर्योदय, सूर्यास्त की तरह प्रतिदिन
घट रहे इस दृश्य के भीतर हर रोज वह नूतन-आशा और संभावना के प्राचुर्य को देख पाता
है। वास्तव में, मैं यह कहना चाहता हूँ कि
मनुष्य को किसी परिचित और निर्दिष्ट भौगोलिक सीमा के भीतर बंद कर देना उचित नहीं है, प्रत्येक इंसान इस दुनिया का विशेष इंसान है।
मनुष्य का यह विश्वाभिमुखी अंतर्दृष्टि ही उसकी सबसे बड़ी सफलता है। भारतीय होने पर
मुझे गर्व है, मगर मेरा कर्तव्य और मेरी
भूमिका सारे संसार के प्रति मानवतावाद की प्रतिष्ठा और जयगान के लिए उद्दिष्ट होनी चाहिए।
(प्रश्न॰10):- कम उम्र और
अपेक्षाकृत कम लेखन कार्य करने के बावजूद भी अँग्रेजी भाषा के भारतीय लेखक जिस
प्रतिष्ठा और सम्मान को प्राप्त करते है, वहाँ अपनी मातृभाषा
में लिखने वाले बहुत सारे वरिष्ठ और सम्माननीय लेखकों को वह सौभाग्य प्राप्त नहीं हो पाता। इसके
लिए क्या भाषा एक परिस्थितिजन्य
कारण है ?
कवि सीताकान्त महापात्र:- इस परिस्थिति के लिए
भाषा एक महत्त्वपूर्ण कारण हो सकता है। इस प्रश्न का उत्तर मैंने अपने पूर्व के कई
साक्षात्कारों दिया है। सबसे बड़ी बात है कि हमारे देश के विशुद्ध साहित्य से
संबन्धित पुस्तकों के अध्ययन करने वाले पाठकों की संख्या बहुत कम है फिर इस संबंध में अँग्रेजी भाषा
की पुस्तक पढ़ने वाले लोगों की संख्या और ज्यादा कम।
भारतीय लेखक जो अँग्रेजी भाषा में लिखते हैं, वे जिस विषयवस्तु को अपना आधार बनाते हैं अथवा
जिन घटनाओं का वर्णन अपने पुस्तकों में करते हैं, वे सब पाश्चात्य
देशों के लिए आश्चर्य का केन्द्र बिन्दु बन जाते है। भारत के सामाजिक जीवन, पारिवारिक बंधन और
व्यक्ति और सामाजिक व्यवस्था की सशक्त अंतरंगता विदेशी राष्ट्रों के लोगों को अद्भूत लगने लगती है। उन परिस्थितियों का विदेशी लोग कभी सामना नहीं करते हैं, इसलिए इस तरह की अभिनव और अनुपम घटनाओं को
भारतीय लेखकों की पुस्तकों में देखकर वे
अभिभूत हो उठते हैं। यही वजह है विक्रम सेठ की ‘ए सूटेबल बाय’ की कहानी पाश्चात्य राष्ट्रों में इतनी
लोकप्रिय साबित हुई।
इसके साथ-साथ मैं यह बात स्पष्ट कर देना चाहता
हूँ कि भारतीय लेखकों के अँग्रेजी भाषा की पुस्तकों की गुणवत्ता अत्यंत ही
उच्चकोटि की है। भारत की वरिष्ठ और बहुचर्चित लेखकों की
पुस्तकों का अनुवाद न होने के कारण वे विदेशी पाठकों तक नहीं पहुँच पाए। फकीर मोहन, गोपीनाथ और कान्हू चरण की कितनी पुस्तकों का
अनुवाद हुआ है। भारत के बाहर रहने वाले एक विपुल पाठक गोष्ठी तक पहुंचाने का एक
मात्र रास्ता अनुवाद और व्यापक प्रसारण है।
(प्रश्न-11):- आप केंब्रिज और हावार्ड
विश्वविद्यालय के साथ–साथ विश्व के बहुत प्रसिद्ध
शिक्षा, सांस्कृतिक, संस्थाओं तथा
विश्वविद्यालय के विभिन्न कार्यक्रमों से जुड़े हुए हैं। उन सभी संस्थाओं में
भारतीय साहित्य को किस दृष्टि से देखा जाता है ? वहाँ पर इस संदर्भ
में कुछ कार्यक्रमों का आयोजन होता है ?
कवि सीताकान्त महापात्र– मैंने थोड़ी देर पहले पाश्चात्य राष्ट्रों,भारतीय साहित्य और उनके लेखकों की स्थिति के
बारे में प्रकाश डाला। फिर भी भारतीय भाषा और साहित्य को लेकर वहाँ पर नजरों में
आने वाला कार्यक्रम नहीं होता है। हाँ, यह बात अवश्य है कि
कई प्रतिष्ठित विश्वविद्यालयों में इंडियन स्टडीज के विभाग
है। मैं खुद कई विशेष कार्यों के लिए उन विभागों से जुड़ा हुआ हूँ, इसके अतिरिक्त, ओरिएंटल लैंगवेज़
सीरीज की उन सारी संस्थाओं में विपुल मात्रा में संस्कृत भाषा के दुर्लभ ग्रंथ और
पुस्तकों के संग्रह पड़े हुए हैं ।
पहले ही मैंने कहा कि केवल अनुवाद के अभाव के
कारण भारतीय लेखकों को पाश्चात्य राष्ट्रों के पाठक और साहित्य जगत
से वंचित रहना पड़ा है। गोपीनाथ मोहंती की ‘परजा’, ‘दाना-पानी’, ‘लय-विलय’ और ‘दादी बूढ़ा’ को छोडकर अन्य किसी भी पुस्तक का अँग्रेजी में
अनुवाद नहीं हुआ है। इसी तरह कान्हू चरण की ‘झंझा’ एक मात्र अनूदित पुस्तक है। फकीर मोहन के “छह माण
आठ गुंठ’- एक मात्र उपन्यास का अमेरिका के अन्यतम प्रसिद्ध कोमेल यूनिवर्सिटी के
अँग्रेजी प्रोफेसर सत्यप्रकाश मोहंती के साथ-साथ यतीन नायक, रविशंकर मिश्रा ने अनुवाद किया है। बहुत सारे
अज्ञात कारणों के कारण “अंधा दिगंत” जैसी पुस्तक का अँग्रेजी में अनुवाद अभी तक
नहीं हो पाया। दुनिया की सारी प्रसिद्ध संस्थाओं और विश्वविद्यालय में भारतीय भले
ही उच्च पदवी पर कार्य कर रहे हो, मगर भारतीय भाषा और साहित्य
पर कभी चर्चा नहीं करते।
(प्रश्न॰12):- “शब्द और समय” जैसे दो शब्दों के
साथ आपकी अत्यंत ही अंतरंगता है, इन दोनों शब्दों के प्रति
आपकी ज्यादा ही कुछ ममता और श्रद्धा है। इसलिए आपके द्वारा लिखी गई
किताबों के शीर्षकों में यह शब्द बारबार देखे जाते हैं, जैसे कि “समय र शेष नाम”, “फेरि आसिबार बेल”,(समय),“समयर आरपारि”, “संस्कृति’, ‘आम समय”, ‘शब्द आकाश’, ‘शब्द’, ‘स्वप्न और निर्भीकता’ इत्यादि। इस विषय पर कुछ प्रकाश
डालें।
कवि सीताकान्त महापात्र – इस प्रसंग को हिन्दी की विशिष्ट साहित्यकार डॉ॰
नामवर सिंह ने उठाया था। मेरे एक कविता-संग्रह की भूमिका में “शब्द और समय के कवि सीताकान्त” नाम से उन्होंने एक आलेख लिखा था। मनुष्य जीवन
के प्रत्येक स्तर को समय किस तरह स्पर्श कर प्रभावित करता है, इस विषय का उसमें उल्लेख किया था। मेरी धारणा
यह थी कि कभी भी समय से मनुष्य मुक्ति नहीं पा सकता। चाहे किसी की इच्छा हो या न
हो,उसे समय का सामना करना ही पड़ता है। जीवन के
समूचे परिवर्तन में समय एक अवश्यंभावी उपादान है। समय मनुष्य जीवन का एक विशेष
अविच्छेद्य अंग है। समय को ढकना या समय को भूलने का सामर्थ्य मनुष्य में नहीं है।
सच में, समय के सामने मनुष्य की अवस्था असहाय है।
यह बात सही है कि समय स्थिर नहीं है। वह एक
चिरंतन प्रवाहमान धारा है। समय की गति के साथ के साथ मनुष्य को कदम-ताल मिलाते हुए
आगे बढ़ना पड़ता है। एक कवि के तौर पर मेरे लिए यह बिलकुल असंभव है कि समय के बहते
हुए स्रोत के पास मैं स्थिर खड़ा हो जाऊँ। समय अदृश्य है, मगर इसकी शक्ति असीम है। मनुष्य जीवन के सभी
परिवर्तनों के पीछे समय की अनिवार्य उपस्थिति रहती है। यही वजह है मैं कविता लिखते
समय अत्यंत ही सचेतन होकर समय को महत्त्वपूर्ण आधार मानता हूँ। इसी तरह शब्द को
भी। शब्दों का सामर्थ्य कल्पना से परे हैं। यह होता है संयोग के
सेतु की तरह। एक जीवन काल में शब्दों की खोज समाप्त नहीं होती है,जन्म-जन्मों तक उसका इंतजार करना पड़ता है।
कभी-कभी मिल जाता है तो कभी नहीं मिलता है। यह अन्वेषण की कथा कहते समय मेरे मन
में कविता की कुछ पंक्तियाँ याद हो उठती है, जैसे– एक शब्द को गढ़ने में/ जिस तरह आकाश हजारों रंग
बदलता है / हवा कितने तरीकों से गीत गाती है/ समुद्र रोता है, हँसता है, गूंगी बालू पर
टकराता है/ सर्वसहा वसुंधरा चातक की तरह ताकती है / कि कब एक शब्द का निर्माण होगा / इसलिए सौ जन्म, सौ मृत्यु की आवश्यकता होती है?
(प्रश्न॰13):- मैंने आपका पहले एक
मंतव्य पढ़ा था जिसमें आपने समय के प्रसंग में कहने के लिए निर्जनता की बात उठाई
थी। निर्जनता मनुष्य जीवन के सारे स्तरों को किस तरह समेटे बैठी है, इस बात की समालोचना हुई थी। इस विषय पर थोड़ा-सा
विस्तार से प्रकाश डालें ।
कवि सीताकान्त महापात्र – हाँ, मैंने इसके ऊपर मेरे
विचार रखे थे, अपना वक्तव्य दिया था। समय
के प्रसंग पर कहने के लिए मैंने कहा था कि समय के अनेकानेक नाम है, निर्जनता उसका अंतिम परिचय होती है। सभी मनुष्य
को निर्जनता खा जाती है। पारिवारिक जीवन और सांसारिक कोलाहल के भीतर रहते समय
मनुष्य उस निर्जनता के द्वीप का निर्वासित जीवन जीता है। संसार, जीवन, लोभ, मोह, माया जैसे अनेकानेक
अनुभवों से दूर, छोटे बच्चे के रूप में शुरू कर स्वयं भगवान के जीवन
में निर्जनता का प्रभाव देखने को मिलता है।
याद करो, उस अनन्य क्षण को, जब घनघोर जंगल में भगवान श्री कृष्ण सोते हुए नीरवता में जारा शबर के उस तीर का इंतजार
कर रहे थे। श्री कृष्ण के जीवन की इस निर्जनता का निष्ठुर अनुभव
था। निर्जनता भिन्न-भिन्न रूप बदल कर आती है, चली जाती है। घर में
रह रहे एकाकी बुजुर्ग लोग, मध्यम-वर्गीय परिवार में
बच्चों की स्कूल और पति के बाहर जाने पर घर की अकेली महिला एक विचित्र शून्यता के
भीतर कुछ समय के लिए जिस असहायता का अनुभव करती है, उसी का नाम है निर्जनता। प्रेमी जोड़ों के मिलने
के पथ पर जिन किन्हीं बाधाओं को लेकर निर्जनता के शीतल द्वीप को ले जाती है, निर्जनता के वे क्षण उन्हें इस तरह लगते हैं, जैसे उनके चारों तरफ दुनिया उजड़ी हुई नजर आती है। जीर्ण-शीर्ण हो जाती है।
जिस तरह एक छोटे बच्चे के खिलौने टूटने का दुख उसे निर्जनता के भीतर खींच ले जाता
है, वास्तव में “यह है या यह नहीं है” की बीच की स्थिति मनुष्य के लिए उसकी निर्जनता
होती है।
(प्रश्न-14):- साहित्य रचना के
क्षेत्र में परम्पराओं की भूमिका कितनी महत्त्वपूर्ण है?
कवि सीताकान्त महापात्र – परंपरा और आधुनिकता पर मैं पहले ही बहुत बता
चुका हूँ। परंपरा की सशक्त जड़ों पर ही आधुनिकता टिकी है। परंपरा हर समय हमेशा
पुरानी और आधुनिकता नई, इस बात पर मेरा कोई विश्वास
नहीं है। आज हम जिसे परंपरा कहते हैं, कभी वह लोगों
के लिए आधुनिकता हुआ करती थी। इसलिए मेरी दृष्टि में अनेक पुराने काव्य, कविताओं में आज भी आधुनिकता की वह सतेज खुशबू
मिलती है। अभी भी ऐसा लगता है मानो यह हमारे समय की रचना हो। इसी तरह दूसरी तरफ अभी भी अनेक रचनाओं
में बहुत प्रयास करने के
बाद भी आधुनिकता का पता नहीं चलता। फिर भी साहित्यकारों के लिए, खासकर कवियों के लिए,परम्पराओं के साथ जुड़ा होना बहुत आवश्यक है, प्राचीन और मध्य युगीन साहित्य का अध्ययन किए
बिना आधुनिक काल की कविता कैसे लिखी जा सकती है, मुझे समझ में नहीं
आता। हम केवल ओड़िया साहित्य की बात नहीं
कर रहे हैं। बंगाल के सुनील गांगुली जैसे कवियों ने भी कभी भी अपनी परम्पराओं को
नहीं छोड़ा हैं। पारंपरिक परम्पराओं की
समालोचना के परिसर में रवीद्र नाथ के अनेक दोष त्रुटियाँ दर्शाई गई हैं। इसलिए मैं हमेशा आधुनिकता को परंपरा का नवीन
संस्करण मानता हूँ, इसलिए मैं उसे इसका नवकलेवर
कहता हूँ।
(प्रश्न-15)–आदिवासियों की मौखिक कविताओं के संग्रह, संरक्षण और अनुवाद के लिए आप
अपनी नौकरी के जीवन में इतना समय किस तरह दे पाए, जबकि आईएएस की नौकरी में तो पदभार वास्तव में
ज्यादा महत्त्वपूर्ण होता है।
कवि सीताकान्त महापात्र – यह बात बिलकुल सही है कि आई॰ए॰एस॰ की नौकरी में
पद ज्यादा महत्त्वपूर्ण होता है और इसका दायित्व भी ज्यादा होता है। मेरे सारस्वत
जीवन के संदर्भ में इस नौकरी को लेकर पहले भी अनेक बार सवाल पूछे गए हैं। सही अर्थों में, मैंने यह प्रशासनिक सेवा की नौकरी एक सुयोग के
रूप में ग्रहण की थी। आई॰ए॰एस॰ होने के कारण समाज में जितने प्रकार के लोगों से
मिलने का मौका मिलता है, जितनी अलग-अलग समस्याओं का
सामना करना पड़ता है और फिर जितनी समस्याओं का मैंने समाधान किया है, इतना किसी दूसरी नौकरी में संभव नहीं है।
राजनैतिक व्यक्तियों से लेकर वरिष्ठ अधिकारियों और समाज के सभी स्तर के लोगों के
सुख- दुख को नजदीकी से देखने का अवसर इसी नौकरी से मिला। अनेक घटनाओं में मेरे ऊपर
दबाव भी आया। मगर मैं उन किसी बाहरी दबाव के वश में नहीं हुआ। मेरे टेबल पर आई
फाइलों को मैं यत्नपूर्वक पढ़कर अपने विवेकानुसार निर्णय लेता था। इस नौकरी के माध्यम
से दूसरों के दुख और अभाव-बोध को समझने का सौभाग्य मिला। आदिवासी लोगों का जीवन के
प्रति जिस तरह अखंड दृष्टिकोण मिलता है,वैसा और कहीं देखने
को नहीं मिलता। उनके अनुसार मनुष्य,समाज, प्रकृति, ईश्वर सभी इस जीवन
के अंश विशेष हैं। जीवन का ऐसा सामग्रिक बोध और देखने को नहीं
मिलता। उस समय उनके मौखिक गीतों पर कार्य करने के लिए मुझे दो बार होमी जहागीर भाभा फ़ेलोशिप प्राप्त हुई थी। पहली बार इस फ़ेलोशिप
को प्राप्त करते समय मेरे साथ थे– गिरीश कन्नार्ड, जे॰पी॰दास और फिल्म निर्माता श्याम बेनेगल।
दूसरी बार सीनियर फ़ेलोशिप प्राप्त करते समय मेरे साथ थी रोमिला थापर। फ़ेलोशिप
मिलने के बाद पूरे दो साल छुट्टी लेकर मैंने यह कार्य किया था।
(प्रश्न-16)–– आप कविता कैसे लिखते हैं ? कितना समय लगता है? एक बार लिखने के बाद आप क्या दुबारा संशोधन
करते हैं ?
कवि सीताकान्त महापात्र - कविता आवेग से पैदा
होती है। यह आत्मा का अपना एक दस्तावेज़ होता है, इसलिए कविता किस तरह
लिखी जाए, इसका कोई सीधा उत्तर नहीं होता। कभी-कभी मन में
आई हुई पहली पंक्ति को मैं लिख देता हूँ, मगर आगे की और
पंक्तियां नहीं लिख पाता। उस पहली पंक्ति के लिए कभी-कभी उचित योग्यतम दूसरी
पंक्ति पाने के लिए दीर्घकाल प्रतीक्षा तक करनी पड़ती है। मैं कभी-कभी एक ही बार
में सारी कविता लिख देता हूँ। मगर जब मुझे लगता है, जो मुझे कविता में
कहना था, नहीं कह पाया तो मैं उसे वहीं छोड़ देता हूँ।
लगभग चार-पाँच महीने के बाद फिर से मैं उस कविता की ओर लौट आता हूँ। दूसरी तरफ जब
मुझे लगता है कि जब मैंने अपनी कविता में ठीक-ठीक लिख दिया है तो और मैं उसके साथ
छेडखानी नहीं करता। लंबी कविता के लिए कई शृंखलाओं का ध्यान रखना पड़ता है, इसलिए उनकी रचना में मुझे अधिक समय लगता है।
लेखन के बाद उसमें कुछ संशोधन करने पड़ते हैं। कभी-कभी बिना किसी संशोधन के कविता
चल जाती है। इसलिए इस प्रश्न का संक्षिप्त उत्तर मैं कह सकता हूँ।
“मैं प्रतिक्षण कविता
लिखता हूँ”
(प्रश्न-17)– आपके साथ इतने लंबे समय से चल रही वार्तालाप के
दौरान मैंने पाया कि आप पढ़ने के ऊपर विशेष ज़ोर देते हैं कि लेखन कार्य में
व्यय हो रहे समय के तुलना में पाँच गुना ज्यादा पढ़ना चाहिए। इस तरह समय का
भाग-बंटवारा किया जा सकता है ?
कवि सीताकान्त महापात्र – मेरी लाइब्रेरी तो आपने देखी है। लगभग 15 हजार के आसपास किताबों का संग्रह है। विगत कुछ सालों
से मैं अलग-अलग संस्थाओं को किताबें दान दे देता हूँ। बहुत पहले से ही मैं पढ़ने पर
विशेष ज़ोर देता हूँ। छात्र जीवन से ही रेवेन्सा कॉलेज की ईस्ट हॉस्टल में रहते समय, जब ग्यारह बजे लाइट बंद करने का नियम था,इस दौरान मैंने अनेक पुस्तकें पढ़ीं। जैसेकि काम्यू का उपन्यास ‘द प्लेग’ मैंने उस समय पढ़
लिया था।
केवल साहित्य ही नहीं इतिहास, दर्शन, संस्कृति, नृत्य तथा अनेक अन्य विषयों पर आधारित पुस्तकें
मुझे अत्यंत ही प्रिय लगती थीं। आपको यह जानकार खुशी होगी
कि टाइम्स लिटरेरी सप्लीमेंट ने इस शताब्दी की सबसे अधिक प्रभावशाली पुस्तकों की
सूची प्रकाशित थी। 2010 मसीहा की प्रकाशित इस सूची
में से 85 किताबें मेरी पढ़ी हुई थीं। किताबें पढ़ना मेरा
सबसे बड़ा शौक है। किताबें मेरी सर्वश्रेष्ठ संपत्ति हैं।
(प्रश्न-18)–– हकीकत में भारतीय साहित्य जैसी कोई चीज है? संविधान की अष्टम सूची में स्वीकृत 22 भाषाओं के अलावा कुछ अन्य भाषाओं को जोड़ने का
दबाव बन रहा है। प्रत्येक भाषा का अपना साहित्य संस्कृति आपस में अलग होने के कारण
भारत के समूचे साहित्य की पहचान नहीं बन पाती है, जिस वजह से नोबेल
पुरस्कार भी नहीं मिल पाते हैं। इस विषय पर आप कुछ प्रकाश
डालें।
कवि सीताकान्त महापात्र – सारे यूरोप में जितनी भाषाएँ हैं, उनसे कई गुना अधिक भाषाएँ भारत में है।
अपने-अपने अंचलों में, भले ही, इन भाषाओं के साहित्य का प्रचार-प्रसार हो जाता
हो, मगर उनका प्रभाव विश्व साहित्य के दरबार में
अनुभव नहीं किया जा सकता है। हमारे देश में अलग-अलग भाषाओं पर वाद-विवाद पैदा होने
के कारण एक अस्वस्थ वातावरण का निर्माण हुआ है। प्रादेशिक भाषाओं के बीच आपसी
असहिष्णुता पैदा होने की भी समस्या है।
सारी भारतीय भाषाओं में केवल बंगला और तमिल
भाषा में हुए शोध कार्य संतोष जनक है। अगर उच्चकोटि की साहित्यिक पुस्तकों पर
उत्तम शोधकार्य के साथ उनका अनुवाद नहीं होता है तो उनका मूल्यांकन कैसे किया जा
सकेगा? एशियाई देशों में भी चीन को दो बार तथा जापान
को तीन बार साहित्य के क्षेत्र में नोबेल पुरस्कार मिल चुका है, मगर 1913 में रवीद्र नाथ
टेगोर की गीतांजली के बाद सौ वर्ष से अधिक समय बीत जाने के बाद भी किसी भारतीय को
नोबेल पुरस्कार मिलने का सौभाग्य प्राप्त नहीं हुआ है। विश्व स्तर पर भारतीय साहित्य की उत्साहजनक
स्थिति के लिए उच्चकोटि का अनुवाद होना ही यथेष्ट नहीं है, वरन उन पुस्तकों के प्रकाशकों का भी वैसा ही
स्तर होना चाहिए, जिनके पास विश्वव्यापी
प्रसारण व विक्रय के नेटवर्क हो। शायद यही कारण है कि स्पैनिश भाषा के साहित्य को
सबसे ज्यादा नोबेल पुरस्कार प्राप्त हुए, तथा अंग्रेजी दूसरे
स्थान पर रही ।
पाबलों नैरुदा का नाम लगभग दस बार नोबेल तालिका
में चयन होने की सूचना मिलते ही अंतिम पादान में नाम कटने की खबर मिलती। इस तरह
लगातार हर वर्ष चर्चा में रहते-रहते अंत में विजयी हो गए। नोबेल पुरस्कार के लिए
पूर्व नोबेल पुरस्कार विजेताओं की सिफ़ारिशों की भूमिका महत्त्वपूर्ण होती है, जिसे प्राप्त करना इतना सहज नहीं है।
(प्रश्न-19)–– ओड़िया भाषा का शास्त्रीय मान्यता पर आप
अपना विचार रखना चाहेंगे?
कवि सीताकान्त महापात्र - ऐसी सरकारी मान्यता
से क्या मिलेगा? आप तो सत्यनगर में घूमते-घूमाते
मेरे घर पहुंचे हो। किसी घर के दरवाजे पर ओड़िया भाषा में लिखा हुआ कोई नाम देखा है? इस भाषा को जिन लोगों के मान्यता की जरूरत है
अगर वे लोग अपना मुंह फेर लेते हैं तो सरकार द्वारा प्रदत्त
शास्त्रीय मान्यता के मुकुट का क्या अर्थ है। ओड़िया भाषा को शास्त्रीय मान्यता क्यों मिली – उसके लिए चल रही प्रतिद्वंद्विता तो अभी तक
रुकी नहीं है। देखा जाएगा आगे क्या होगा, अभी तो केवल इंतजार
किया जा सकता है।
(प्रश्न-20)–– आपके प्रिय लेखक कौन-कौन हैं
? विदेशी लेखकों में भी?
कवि सीताकान्त महापात्र– भागवतकार जगन्नाथ दास, महाभारतकार सारला दास को मिलाकर गोपीनाथ मोहंती
मेरे प्रिय साहित्यकार हैं। विदेशी साहित्यकारों में काम्यू,सार्त्र की रचनाएँ मुझे अच्छी लगती हैं। अल्बर्ट काम्यू
द्वारा लिखित लगभग सारी पुस्तकों का अनुवाद मैंने पढ़ा है, मगर मेरे साहित्यिक जीवन पर किसी भी विदेशी
लेखक का खास प्रभाव नहीं है। विदेशी कवियों में आक्टो वियो पाएज मेरे पसंदीदा कवि हैं। मैंने उन्हें भी
खूब चाव से पढ़ा है।
(प्रश्न-21)–– आपकी विगत पचास सालों से चली
आ रही साहित्यिक यात्रा बहुत लंबी
है। अनेक किताबें,अनेक पुरस्कार, गहन अनुभव और प्रगल्भ ज्ञान इस आधी शताब्दी के
भीतर आपके जीवन में प्राप्त हुआ है। क्या फिर मन में किसी चीज का अवशोष बाकी है कि
कुछ रह गया है?
कवि सीताकान्त महापात्र – मेरी यह यात्रा जितनी लंबी है, उतनी ही उपभोग्य भी। इस जीवन काल के दौरान
मैंने अनेक अभिज्ञता अर्जित की है। प्राप्त किया है अनवद्य अनुभव। बहुत सारे लोगों की श्रद्धा, स्नेह और प्रेम से मैं पूरी तरह सराबोर हुआ। मेरा किसी प्रकार का अवशोष
नहीं है। मेरे सामर्थ्य के अनुरूप जितना संभव हुआ, मैंने उसे किया।
(प्रश्न-22)–– आपके जीवन में ऐसा कोई दुःखद
अनुभव है जिसे आप भूल नहीं पा रहे हो। अगर कोई आपत्ति न हो तो कृपया बताएं।
कवि सीताकान्त महापात्र – मेरे छोटे भाई ताराकान्त की असामयिक मृत्यु मेरे जीवन की सबसे ज्यादा दुःखद
घटना है। वह मुझसे छह साल छोटा था मैंने उसे अपने हाथों से पढ़ाया, इंसान बनाया। आई॰आई॰टी॰ से
इंजीनियरिंग करने के बाद वह अपने काम में व्यस्त था। अचानक हार्ट अटैक से उसकी
मृत्यु हो गई। यह दुख अभी भी मेरे सीने में ठहरा हुआ है।
(प्रश्न-23)– ‘श्रद्धा’ (कवि सीताकान्त के घर का नाम) के भीतर अब समय
कैसे कट रहा है ?
कवि सीताकान्त महापात्र– मैं यहाँ अच्छा हूँ। शरीर भी अब स्वस्थ है। लेखन-पठन नियमित करता
हूँ।
सीताकांत महापात्र: लेखक-परिचय
एक बड़े कवि का परिचय देना एक कठिन कार्य
है, खासकर
तब जब वह अपनी रचनात्मकता के शिखर पर हो। इस वजह से, उसके कविता का यह मूल्यांकन और भी
कठिन है कि साहित्य को उसका अवदान है। ये कठिनाइयाँ तब और भी विकट हो जाती हैं जब हम देखते हैं कि वह कभी लिखता
तो प्रथमतः एक क्षेत्रीय भाषा में है,उसका सन्धान तत्वतः भारतीय है, और शिल्प
में उसकी प्रतिभा की लीला या क्रीडा समसामयिक सार्वभौमिक है। लेकिन सीताकांत
महापात्र की कठिनाइयों के भीतर से अपना वह भेद
खोलते हैं जिससे उनकी कविता समझी जा सकती है। अस्वीकार और स्वीकार के उद्योगों के
संघर्ष की एक आदर्श परिणति है और इस तरह वह विवेक-बुद्धि तथा भावावेग के
द्वंद्वात्मक घात-प्रतिघात का एक समाधान प्रस्तुत करते हैं। डेविड ऑल बुक के
शब्दों में, इसी
कारण वे ‘एक
जीवन-संधान में अभिकेंद्रित
मेधा’ हो
गए हैं।
सीताकांत महापात्र (जन्म 1937) ने अपना पहला कविता-संग्रह ‘ दीप्ति
ओ द्युति’ 1963 में
प्रकाशित किया था और उनका दसवाँ संग्रह
‘वर्षा सकाळ’ दिसंबर
1993 में
प्रकाशित हुआ। यह कालखंड ऐसा
है जिसमें उत्तरोत्तर विकास देखा जा सकता है। इसे एक अनोखी परिघटना मानना चाहिए- उक्ति अभिव्यक्ति की नवीनता
के लिए न सही, पर
खोज या सन्धान के नैरन्तर्य के कारण निश्चित ही। यह यात्रा एक कवि की ही नही, बल्कि
एक समूचे सौन्दर्य-विधान की भी है जो कला के अन्तिम पड़ाव तक अन्ततः मिलेगा भी या नहीं। नैरन्तर्य के
इस बोध और सन्धान की तल्लीनता ही सीताकान्त
को अपना समकालीनों और समवयस्कों से भिन्न या विशिष्ट बनाती है।
‘दीप्ति और द्युति’ ने 1963 में
ओड़िया काव्य-जगत में एक वजनदार कवि के आर्विभाव
का संकेत दिया था। यह वह दौर था जब
ओड़िया कविता का मुहावरा एक कायाकल्प की कगार
पर था। सच्चि राउतराय
अपनी अंतिम बड़ी कृतियों में से एक (कविता,1962) प्रकाशित कर चुके थे, गुरुप्रसाद
महांति अपने अंतिम सार्थक कृति (नूतन कविता,1965) प्रकाशित कर विदा हो चुके थे, और
रमाकांत रथ अपनी पहली महत्वपूर्ण कृति (केते
दिनारा,1963) के
साथ सामने आ चुके थे। राउतराय ओड़िया
कविता में प्रतीकवादी
अभिदृष्टि
और रामाजवादी चिंतन का उद्वेलक
समन्वय ले आये थे, जो कि
एक दुर्लभ किस्म की रचनात्मकता थी। इससे ओड़िया
कवियों को पहलीबार सचमुच में मुक्त पद्य या काव्य का आस्वाद मिला था और सच्चि राउतराय को कला-गुरु या काव्य-गुरु
माना जा चुका था। गुरुप्रसाद ने अपनी कृति ‘काल-पुरुष’ में ‘वेस्टलैण्ड’ की काव्यात्मक पुनर्रचना करके
इलियट के काव्य से
परिचय करा दिया था। लेकिन गुरु प्रसाद की सर्वाधिक
सार्थक देन यह थी कि उन्होंने कविता का एक ऐसा मुहावरा दिया था जो अधिक
हल्का-फुल्का, अधिक
सम्प्रेषणप्रवण, अपनी
संरचना में अधिक मुक्त-प्रवाही और अपनी बोलचाल की
लय में आकर्षक ढंग से क्षिप्र या तेज रव था। रमाकांत रथ भिन्न थे। वे राउतराय और गुरुप्रसाद, दोनों
के प्रशंसक तो थे लेकिन
उनसे जरा-भी प्रभावित नहीं हुए। वे एक ऐसी बोली में बोल रहे थे जो अपने रूपकार्थ
में रुढ़ि-विरुद्ध, यहाँ तक कि अटपटी थी। लेकिन इसकी आड़ में वे एक ऐसा मुहावरा रच रहे थे जिसमें काव्य-वस्तुओं
की खोज-बीन के लिए भाषा का प्रयोग दर्पण पर पारे की परत की तरह किया जाता हैःझटके,व्याघात, परिहास, सुर के आत्मोपहासी उतार-चढ़ाव और छह
द्म-गम्भीर आध्यात्मिक
गप्पबाज़ी इत्यादि तत्व उसी खेल के हिस्से थे, मानो कोई घुन्ना दैत्य अपना अर्धोच्चरित नैराश्यगीत बुदबुदा रहा हो। सीताकान्त महापात्र अपनी ‘दीप्ति
ओ द्युति’ एक
ऐसे दौर में लेकर आए थे।
इस पहले
संग्रह को भारी-भरकम अपेक्षाओं और
किंचित हिचकिचाहट
के साथ हाथों-हाथ लिया गया। अपेक्षाएँ जगी थीं इसके मुहावरे की ऋजुता के कारण।
हिचकिचाहट इस दुश्चिन्ता की देन थी कि कहीं
तत्कालीन प्रभावशाली फ़ैशन का शिखर न छूट
जाए। यह मानना होगा कि 1963 में ओड़िया
कविता में विचारों की संश्लिष्टता और शैली का एक तरह का बेलौसपन स्पष्ट दिखता था। कविता कवि का खब्त बन चुकी थी और
विशुद्ध पाठक गायब हो चुका था। सीताकान्त महापात्र ने अपने पहले संग्रह से ही अपना इरादा काफी स्पष्ट कर दिया था। वह
सबके दर्पण में डूबते सूर्य को देखने के लिए कटिबद्ध थे और उन्होंने कहा :-
गायब सर्वस्व, लुप्त।
बिला रहीं लड़ियाँ ब्रह्माण्ड की
सदा के लिए
आद्य देह सोख रही
त्वचा की पोरों से,
सभी कुछ समेटती, अंतिम
रवि-रश्मियाँ।
पुनारावलोकन के दृश्यबन्ध की यह शुरुआत
थी और उनके चौगिर्द श्रोता जमा हो चुके थे-कुछ -कुछ सराहते,कुछ -कुछ चकित। प्रत्यक्ष, सम्प्रेषण
के प्रति अनुराग और अपने सामने खुलते जगमग संसार के प्रति विस्मय का भाव लिये हुए पाठक कवि के साथ हो गये, मानो कोई अनुष्ठानिक
सायुज्य हो।
‘अष्टपदी’
(1967) में सीताकान्त ने अपने प्रत्यक्ष कथन को मिथकपुराणों के आवरण से ढँक दिया-
मथुरामंगला से कुब्जा आ गयी, भागवत
से देवकी, और
अस्तित्वहीन द्वीप से सोलन आ गया और मिथकीय पात्रों की भीड़ ओड़िया-काव्य परिदृश्य
पर छा गयी। सीताकान्त की
मिथकीय
कल्पना की संरचना यही प्रकट हुई। मिथक-रचना की प्रचलित शैली छोड़कर सीताकान्त ने
प्रत्यक्ष-निर्मित
सतह-संरचना का उपयोग किया; अधिक
गहरे गोता लगाने की उनकी कोई मंशा नहीं थी, क्योंकि उन्हें पता था कि ओड़िया की काव्य-संवेदना मुलतः
मिथक-ग्रस्त है, और
सम्पर्क साधने के लिए क्रम-परिवर्तन या अदला-बदली मात्र पर्याप्त है। गहनतर
संरचनाओं की खोज ना तो तर्कसम्मत होती,न ही
वह आवश्यक थी। इसलिए सीताकान्त
की कुब्जा तत्वतः एक पौराणिक मिथक ही बनी रही, और मिथक की रचना सम्पर्क मात्र से
हो गयी। किसी विशेष आह्वान-अनुष्ठान के बग़ैर ही पाठक की गहनतर संवेदना जाग्रत हो
गयी।
इसके
दो निहितार्थ स्पष्ट थेः एक यह कि सीताकान्त द्वारा प्रयुक्त मिथकों ने मानवीय
परिस्थिति या मानवीय नियति को पुनः परिभाषित करने की कोइ चेष्टा नहीं की; दूसरा यह कि मिथक अनायास रूपक बन
गये। इसे आधुनिक ओड़िया कविता के विकास का एक
अत्यन्त अर्थगर्भ चरण माना जाना चाहिए।
सीताकान्त
ने चुपचाप ही मुहावरे की जगह विचार रख दियाः अगर कुछ कहने को
है, तो
शैली की परवाह करने की जरूरत, अब
नहीं रही। काव्योक्ति के सारतत्व में इस निष्ठा के काव्य के दो प्रयोजन सिद्ध हुए :-
प्रथम, इससे
एक संसाधन या स्रोत का पुनर्नवीकरण हुआ;
और दूसरे इससे दैनन्दिन अस्तित्व की लघुता को एक वृहत्तर सन्दर्भ मिल गया।मिथक-रचना की पौराणिक कला में अधिकतर कथात्मक विधान
की प्रत्यक्षता से शक्ति आती थी और सीताकांत ने भी ठीक उसी तरह उस सामग्री का पुनरूपयोग
किया। इस समय तक यह स्पष्ट हो चुका था कि सीताकांत
किसी खास तकनीक का प्रयोग नहीं कर रहे,
बल्कि उपलब्ध सामग्री का ही निष्ठापूर्ण, प्रामाणिक
और सीधे-सीधे उपयोग कर रहे हैं।
तकनीक का प्रतीयमान
अभाव वास्तव मी खुद एक तकनीक था। इस तरह,
कथापरक बाह्य-रुपाकार का प्रत्यक्ष कथन वस्तुतः मिथक रचना की एक तकनीक बन गयी। यह काम जोखिम का था, लेकिन सीताकांत ने खतरा मोल लिया और ओड़िया कविता के लिए एक साँचा तैयार कर दिया: जो नितांत साधारण किंतु शिक्षाप्रद सूझ थी। इस सांचे की प्रमुख
सामग्री थी जातीय के स्मृति के रूप में
मिथकमाला या
मिथकशास्त्र।
‘शब्दर
आकाश’ (1971) के
प्रकाशन से कवि के काव्यजीवन का एक रोचक मोड़ सामने आया। इसमें अनुभव के दो स्तर
दृष्टिपटल के केंद्र में आये,
वे स्तर थे जातीय
स्मृति और निजी स्मृति। अनुभव के रूप में स्मृति वस्तुतः एक युग्म है : सामूहिक
(जातीय)
स्मृति और व्यक्तिगत (निजी) स्मृति अलग-अलग इकाइयाँ नहीं होती, बल्कि, एक दूसरे से आबद्ध, अदल-बदल कर एक-दूसरे की जगह लेती
रहती है। ‘शब्दर
आकाश’ में
सीताकांत ने निजी स्मृति को जातीय स्मृति पर तरजीह दी, लेकिन वे यह कदापि नहीं भूले कि
उनकी निजी स्मृति को अपनी भूल-भुलैया में दबा-छिपाकर सामूहिक स्मृति के अवशेष भी
अवश्य बचाकर रखने हैं। ‘हवाई अड्डा’ कविता मे वे लिखते हैं :-
हवाई जहाज़ का लपलपाता मुँह
ढलती दोपहरी को पोखर में
रूपहले चोईदार कई भाकुर
वार्निश-पुता आसमान धूप-धुला
हवाई अड्डा गाँव परनाला
रातों को स्वर्ण लौटता चैत्ररथ
लाल-नीली रोशनी
घर लौटना, लंबी यात्रा की
वापसी विदाई का अनाहत नाद।
हवाई जहाज के उड़ान भरने और दोपहर के
पोखर में रूपहले शल्क वाली मछली का बिम्ब उसी अभयमुखी या युग्मक सामूहिक एवं व्यक्तिगत स्मृति का सूचक है। हवाई जहाज़ उनकी निजी स्मृति का अंग है, जबकि पोखर की मछह ली उनकी सामूहिक
स्मृति का, जो
उन्होंने सामुदायिक जीवन की प्राथमिक इकाई गांव मैं अर्जित की है। एक दूसरी कविता, ‘बगीचे’ में सागर द्वीपों की तलाश में
निकलते हैं और आकाश गिरि-शिखरों
की तलाश में :-
खोजते रहे सागर अपने भूद्वीप
झुका रहे आसमान अपने गिरि-शिखरों पर ।
मैं यहाँ प्रतीक्षा करूँगा
तुम्हारी,
क्योंकि तुम आओगे, मुझे यह पता है
मेरे प्रिय अपरिहार्य।
सागर द्वारा किसी द्वीप की खोज करना काल या समय में स्थिरता की तलाश की एक
रूपक परख अभिव्यक्ति है, और
आकाश द्वारा किसी पहाड़ की तलाश अनंत की परिभाषा खोजने की एक आलंकारिक उक्ति। जातीय
स्मृति और निजी स्मृति के बीच वह छोटी-सी बगिया है जो जीवन जीने की प्रक्रिया की
प्रतीक है। यहीं हमें
स्मृतियों के एक दूसरे में गुँथने
और विपर्यासों के समाहार का दृष्टांत मिलता है। वस्तुतः सीताकांत की कविता
में काव्य-देश (या काव्य-स्थान)
का विन्यास इसी क्रम से हुआ है :- सामूहिक व्यक्तिगत और तात्कालिक।
यहीं हम सीताकांत की कविता में काल और
देश की अंतर्वस्तु
तक पहुंचते हैं और ‘समुद्र’ (1977) नामक
संग्रह इसका परिपूर्ण संवाहक है। ‘ग्रीष्म
में बूढ़ा’ नामक
उनकी एक कविता का यह उद्धरण लें :
सड़क पार करते सूखे पत्ते
बवण्डर के एक औचक झोंके में
यातायात कर देते ठप्प;
एप्रिल
का दुर्बल स्वर छेड़ रहा रक्तगान
गगन के नीले ज्वाला प्रताप से
चकित हुए पक्षीगण होते दिग्भ्रान्त
।
तो सीताकांत काल और देश को इस प्रकार
देखते हैं : काल
एक ऋतु है और देश उसका ज्वाला-प्रताप या (या अग्नि-विस्फोट)।
देशकाल को इस प्रकार प्रस्तुत करके सीताकांत कम से कम एक नई ज़मीन तोड़ते हैं: वे
मानवीय विडंबना के हमारे संज्ञान को परिशोधित करते हैं । यह परिशोधन तीन स्पष्ट दिशाएँ लेता हैं :पहली अवसाद का लबादा उतार
फेंका जाता है ; दूसरी
विशिष्ट स्थान पुनः परिभाषित हो जाता है;
और तीसरी काल और देश को निर्दिष्ट या विशिष्ट भूमिकाए दे दी जाती है। मानव नियति की यह एक नितांत नई
सिद्धांत प्रस्थापना है;नई इस अर्थ में कि यह भाग्यवाद के
क्लासिकी रूमानी मुखौटे को
चीर देती है और दैनदिन
प्रयोग के लिए एक टिकाऊ सामग्री की बिल्कुल नई दरी बुन देती है । यह टिकाऊ सामग्री यदि और कुछ नहीं तो कम से कम आशावाद जरूर है।
‘चित्रनदी’ (1979) की चर्चा से पहले उस काव्य-युक्ति
या तकनीक के अनोखेपन पर जिसके कारण सीताकांत अपने महान समकालीनों से भिन्न ठहरते हैं : या भेद
मुहावरे में एक नए मोड़ और व्यक्तिगत अर्थवत्ता, दोनों का है। यह तकनीक है विचार के
एवज़ मैं बिंब रखने की। एक प्रतीकवादी के रूप में शुरुआत करने के बाद कवि अब एक ऐसा काव्य-अनुशासन की रचना कर चुका था जो प्रकट प्रतीकवादिता से परे
हटकर थी। इस बीच उन्होंने कथन या बयान की ऐसी रीति भी अर्जित कर ली जो बिम्ब मुक्त थी। आशय यह नहीं है कि कवि ने बिंबों और रूपको का उपयोग किया ही नहीं।
वह उन्होंने किया, पर कविता के परवर्ती भाग में विचारों के एवज़ में उन्हें रखने के लिए ही। दूसरे शब्दों में, उन्होंने
मिथकमाला के एवज़ में प्रतीक रखे और
रूपक में एवज़ में बिंब।
इसके
जरिए उन्होंने पुरजोर तरीके से बता दिया कि वे समकालीन विधि-विधान या काव्यचार से
अलग हटे है और जातीय काव्य का अपना ही मानदंड लेकर चल रहे हैं। यूनानी कवि बासिल
विताकिस्स की राय में सीताकांत भविष्यवक्ताओं की गढ़ भाषा में
छिपाये बिना संदेश पहुंचाने में समर्थ है।’ उनका यह सामर्थ्य दरअसल उनकी यही
अदला-बदली की निपुणता है, जो
कविता से उसके बिंब तो
छीन लेती है, मगर
उनके एवज़ में विचार रख देती है। इससे एक उल्लेखनीय उपलब्धि के रूप में देखा जाना चाहिए।
खासकर उस दौर में जब कविताएं अगर बिंब ना हो तो कुछ भी नहीं
होती थी।
‘चित्रनदी’, ‘अदला-बदली’ की इस तकनीक का पुंजीभूत प्रतिफलन
है। ‘घास
फूल’कविता की ये पंक्तियां देखें :-
वह आए तो उन्होंने देखा
कि यह सच था, घास
की फुनगी पर
नग्न नील फूल थरथरा रहा था
कुहरिल सुबह की सर्द हवा मे,
और बगीचे का प्रसव-कक्ष
भरा था धूल और राख से।
यहां
कवि का उद्देश्य अपने प्रतीक
‘घास फूल’ के
जन्मका दृश्य उपस्थित करना है, जो
दरअसल है एक मिथक ही। ‘नग्न
नील फुल’, ‘ कुहरिल
सुबह की सर्द हवा’ और ‘बगीचे का प्रसव-कक्ष’ हमारे
संज्ञान या बोध को तीव्र करने के लिए नहीं है यह केवल वातावरण को ठेस रूपाकर देने के लिए है। बिंब की दृष्टि से
वे निश्चल है। उनका कार्य या प्रयोजन स्वयं विचार को सौंप दिया गया है; उन्हें दिया गया चित्रात्मक आधार
परिवेशपरक यथार्थ मात्र है।
‘आरा दृश्य’ (1981) में सीताकांत मिथक संरचनाओं के अपने पुराने आखेट क्षेत्र में लौटते
हैं,पर अब
वह एक बदले हुए व्यक्ति हैं। बीच के वर्षों के अन्तराल में उन्होंने जान लिया है
कि मिथक का एक रूपक की तरह प्रयोग तभी अधिकतम प्रभावी होता है जब संपर्क का बिंदु स्वतः ज्ञात हो, और
युग्मपरक सामूहिक एवं निजी स्मृति का उपयोग तब तक नहीं होना चाहिए जब तक कि दैनन्दिन या पार्थिव को अलौकिक
आध्यात्मिक आवृत न
कर ले।अतः वह यशोदा को लेते हैं। कृष्ण के मुख में उसने विश्वरूप के दर्शन किए हैं इस दावे की साख जमाने में वह विफल रहती है । इसके जरिए वे यह विचार संप्रेषित
कर रहे हैं कि इस धरती से प्रेम करने का अपरिहार्य दंड यह है कि जीवन के महान अभिदर्शन(विजन) को मृत्यु में दफन करना पड़ता है। इस तरह ‘दूसरे
दृश्य’ का
रहस्य यशोदा का निजी अनुभव है जो कि
आधुनिक पाठक के पास उसकी सामूहिक स्मृति के अंग के रूप में आता है। इसी तरह ‘ श्रीकृष्ण की मृत्यु’ नामक कविता ‘जारा शबर की गीत’ से अपना सूत्र उठाती है पर उससे
बहुत कम करुण या आर्त्त। हम यह मान सकते हैं कि ऐसा कवि ने सोद्देश्य किया है, क्योंकि
जारा नामक
व्याध की
व्यथा को यहाँ उस महती घटना
के प्रति छह द्म-उदासीनता में रुपान्तरित कर दिया गया है। लेकिन व्यंग्य की पैनी
धार को सोचे-समझे विचार-बिंबो के प्रयोग से चतुराई
से कुण्ठित कर रखा गया है। यह आश्चर्यजनक नहीं,
क्योंकि सीताकांत के शस्त्रागार में
व्यंग्य या आत्म-उपहास प्रमुख हथियार नहीं है। उनका मुख्य अस्त्र करुणा है, और
इसका प्रयोग है दुर्बलतर आत्माओं की बल्कि खुद अपनी भी नैतिक त्रुटियों के बचाव
में करते हैं और यही उनकी रूमानी कल्पना है।
‘ समयेर शेष नाम’(1984) ‘काहाकू
पुच्छिबा कह’(1986) ‘ चढेई
रे तु कि जाणु’ ‘जड़ों
मे लौटने’ की
त्रयी है। ऐसा नहीं
कि सीताकांत कभी भी अपनी जड़ों को भूले हो, लेकिन
एक विचार की तलाश उन्हें एक दूर देश ले गयी थी- चाहे वह सामूहिक अतीत हो या
सार्वभौम मनुष्य की समसामायिक विडंबना (या दुविधा) । ‘समयेर शेष नाम’ के साथ वे घर लौटते हैं- अपनी दादी,अपने बच्चों, अपने घर-द्वार के पास, और मोटे तौर पर असंख्य अंतरंग
नातों-रिश्तों के
पास।
न ही कवि आत्मसमर्पण करता है। वे एक
दुर्दान्त विश्व के बरखिलाफ़ अपने बूते पर खड़े हुए हैं और उन्होंने अपनी आत्मा को
छुपाने के लिए एक जगह खोज ली है । वह जगह शायद ‘वर्षा सकाळ’ (1993) का बदली-भरा आकाश हो । यह देखना रोचक है कि
आध्यात्मिक प्रगतिवादी धुंध में विचार संरचनाएं या विचार बिंब किस तरह धीरे-धीरे लुप्त होते जा रहे हैं। सीताकांत इसके
लिए ओड़िया के 3 महाकाव्यों के ऋणी हैं : सारला दास, जगन्नाथ
दास और भीमा भोई। ओड़िया कविता के तीन प्रमुख
मुहावरों के संगीत-समन्वयक
के रूप में सीताकांत इतिहास क्रम में काव्योक्ति की दो बड़ी खाइयों को पाट रहे
हैं। एक और वे ओड़िया कविता को महत् परंपरा से जोड़ रहे हैं, और ऐसे करने के बाद दूसरी ओर वे
अपना लंगर अपनी समसामायिक पनाहगाह की सुरक्षा में डाल रहे हैं और इस प्रक्रिया में
वे समसामयिकता को आधुनिकता के करीब ले आए हैं। उनके काव्य को नवीनतम चरण के
आध्यात्मिक प्रगीत इन दूरियों को पाटने के प्रतीक है , ऐसी दूरियां जो बहुत समय से थी।
स्वीडिश समीक्षक ओल्स मामग्रेन के शब्दों मे, सीताकांत की कविता संस्कृत धार्मिक
मिथकीय परंपरा यूरोपीय प्रगीतात्मक
आधुनिकतावाद और अपने गृह प्रांत ओड़िशा के
सूर्य-स्नात गाँवों की लोक कविता का महासंगम है। अपनी काव्य-उक्तियों को ऐसा
महासंगम बनाते हुए सीताकांत आधुनिक भारतीय कविता को एक निहायत नया लोकाचार और अर्थ दे रहे हैं, और
एक ऐसी काव्य संस्कृति
भी, जिसमें
औदात्य और पार्थिवता बराबर की
मात्रा में सम्मिश्रित है।
कृतियाँ :
ओड़िया
काव्य :
- दीप्ति ओ द्युति( 1963); 2. अष्टपदी (1967); 3. शब्दर आकाश (1971); 4. समुद्र(1977);
5. चित्रनदी (1979);
6. आरदृश्य (1981); 7. समयर शेष नाम
(1984); 8.काहाकु पूछिबा कह (1987); 9. चढ़ेई रे तू कि जाणु (1990); 10.फेरि आसिबार
बेळ (1991); 11. श्रेष्ठ
कविता (1992); 12. वर्षासकाळ (1993) ।
निबन्ध :
- भिन्न आकाश , भिन्न दीप्ति (1978); 2. निस्संग मणिष (1980); 3. शब्द स्वप्न
ओ निर्भीकता(1990); 4. अन्धारर
झोटिचित्र (1990) ।
यात्रा-वृतांत :
- अनेक शरत् (1981) ।
अनुवाद :
- सारहुलर जन्ह (1977); 2. मगध (1987);
3. सूर्य-तृष्णा (1982); 4. असरन्ति पिलादिन (1991) ।
अँग्रेज़ी
काव्य (अनुवाद) :
- क़्वाइट वोयलेन्स (1970); 2. द अदर
साइलेंस (1973); 3.ओल्ड मैन इन समर (1975); 4. द जेस्टर (1979); 5. द सांग ऑफ
कुब्जा (1980); 6. सिलेक्टेड
पोयम्स (1986); 7. डेथ ऑफ़
कृष्ण एण्ड अदर पोयम्स (1991); 8. ए मार्निंग ऑफ
रेन एंड अदर पोयम्स (1991) ।
आदिवासी काव्य :
- द एम्पटी
डिस्टेंस केरिज़ (1972); 2. द वुडन
स्वोर्ड (1973); 3.स्टेइंग इन
नोव्हेयर (1975); 4. फॉरगिव द वर्ड्स (1976); 5.बाखें :
रिचुअल इनवोकेशन सांग्ज़ ऑफ़ ए प्रिमिटिव कम्युनिटी (1979); 6. मेन, पैटंर्स ऑफ डस्ट (1981); 7.द अवेकेण्ड
विण्ड (1983); 8. द एण्डलेस
बीव : ट्राइबल सांग्ज एंड टेल्स ऑफ ओड़िसा(1991); 9. अन एंडिंग रिद्म्स : ओरल पोयट्री ऑफ़ द इंडियन ट्राइब्ज़(1992) ।
निबंध एवं शोध :
- द कर्व ऑफ मीनिंग (1974); 2. वेअरफूट अन-टू रियलिटी (1975); 3. गैस्चर्स ऑफ इंटिमेसी (1976); 4. भीम भोई (1983); 5. मॉडर्नाइजेशन
एंड रिचुअल (1986); 6. ट्रेडिशन एंड
द मॉडर्न आर्टिस्ट (1987); 7. महाभारत एंड
मॉडर्न इंडियन लिटरेचर(1988); 8.जगन्नाथ दास
(1990); 9. ट्राइबल वॉल
पेंटिंग्ज़ ऑफ उड़ीसा (1991); 10. ट्राइबल लाइफ
एंड कल्चर ऑफ ओड़िशा (1992); 11.छउ डांस ऑफ
मयूरभंज (1993); 12. वियाण्ड द
वर्ड (1993); 13. डिस्कवरिंग द
इन्स्केप(1993) ।
अनुवाद और संपादन :
- ओडिसा :
कुन्स्ट एंड कल्चर इन
नॉडस्टि इण्डेन (एडिटेड विद
ईबेरार्ड फिशर एंड डी. पैथी) (1980); 2. लांगिंग फॉर
द साउथ : एन एंथोलॉजी ऑफ मॉडर्न मैसिडोनियन पोएट्री (1982); 3. ओड़िया
पोएट्री टुडे (1982); 4. एण्ट्स एंड अदर स्टोरीज
बाई गोपीनाथ मोहन्ती (1983); 5. एन एन्थ्रोलॉजी ऑफ मॉडर्न ओड़िया पोएट्री (1984); 6. फॉकवेज़ इन रिलीज़न
: गॉड्स स्पिरिट्स एंड मेन (1983); 7. अमरु शतकम् :
द इरोटिक लव पोएट्री ऑफ अमरु (1985);
8. द रॉक एंड द सेंडलवुड ट्री : (मॉडर्न वियतनामीज़ पोयट्री) (1985); 9. द रिअम ऑफ द
सेक्रेड : वर्बल सिम्बॉलिज़्म एंड रिचुअल स्ट्रक्चर (1992) ।
वक्तव्य
ओड़िया
कवि सारलादास के महाभारत के आदिपर्व के प्रथम अध्याय में वाग्देवी का निम्नलिखित
आह्वान किया गया है जिसमें उनकी ‘अमृत दृष्टि’ की, उनकी मांगलिक चितवन की प्रार्थना
की गयी है -
“ आदि अंतमध्य तू अतु सर्व थाने
ग्रंथ
भिएलु तु भूत भविष्य वर्तमाने ।”
“तू
सर्वव्यापक है : आदि में
है, मध्य
में है और अंत में है । भूत, वर्तमान
और भविष्य के सभी ग्रंथों का उद्गम भी तू
ही है।
मैं उस
देवी सरस्वती को नमन करता हूँ, जिनकी
कृपा के बिना शब्द काव्य रूप में तत्वान्तरित नहीं होते।
इस
अवसर पर मेरे स्मृति पटल पर उनेक दृश्य उभर
रहे है । वर्ष 1953 की
बात है । मैं अपने गाँव अपने माता-पिता,
आत्मीय परिजन, मित्र, अपने गांव की कल-कल निनाद करती
चित्रोत्पला नदी और आक्षितिज
फैले धान के अंतहीन
खेत सबको छोड़कर कटक में स्थित रावेनशॉ महाविद्यालय के छात्रावास में आ गया । मेरी
पहली कविता उसी वर्ष लिखी गई, जिसने
बाद में मेरे
पहले काव्य-संग्रह में सर्वप्रथम कविता का भी स्थान प्राप्त किया ।
कभी-कभी
तो यह विचार आता है कि चालीस
वर्ष की यह लंबी अवधि कैसे
तो, मानो
पलक झपकते ही व्यतीत हो गई । पराजय, प्रीति, स्मृति, मैत्री
और घनिष्ठता के 40 वर्ष
। व्यथा के कितने पल और आयु के सोपान पर
चढ़ने की पीड़ा ! स्वयं अपने भीतर बाहर और सर्वत्र घट रही घटनाओं के प्रति
जिज्ञासा और एहसास के कितने ही प्रयत्न ! लेकिन सपने में सुनी वाणी की तरह स्मृति
की वाणी भी बहुधा बोलती है । और कथन में अपने समूचे अस्तित्व के साथ यह दोनों
उपस्थित होते हैं और साथ ही होता हैं मेरा एक
परिवर्तनशील आत्मभाव, मेरा
निजी व्यक्ति। मुझे एक छोटे काष्ठ पर
विराजमान अनेक देवताओं वाले घर के भीतरी कक्ष में उड़िया ‘भागवत’ का
स्वयं उच्चार सुनाई दे रहा है। मुझे सुनाई दे रहे हैं गांव के एक छोर पर
स्थित छोटे से मंदिर में अच्युत यशोवंत तथा भीम भोई के भजन-स्वर। हैजे से ग्रस्त
गाँव गहन
अंधकार में नीरवता की नितान्त भयानक आवाज तथा देवी मंगला की मनुहार करने वाला
संकीर्तन। और तभी सुन रहा हूं वर्षा,
अगणित मृत्यु,स्मृतिजन्य
अनुराग और जन्म, रुग्णता तथा मृत्यु को चित्रित करते हुए
गुजरते मौसम के स्वर। इस सबके साथ ही गंगाधर मेहर की ‘तपस्विनी’ तथा ‘दीन कृष्ण’,‘कविसूर्य’ और ओड़िया साहित्य के कई अन्य दिग्गजों
के छंदों का पाठ करते मेरे पिताश्री-
उन्हें गुजरे हुए 11 वर्ष
बीत चुके हैं- का भी स्वर है ।
मेरे
लिए कविता इन 40 वर्षों के अन्वेषण, अपर्याप्तता, अधूरेपन, कभी-कभी सर्वथा संतोषप्रद भी नहीं
और अनुभव के सतत को अभरते नए
आयामों तथा काव्य-रूप देने हेतु शब्दों की खोज की गाथा है|
मैं
यह सदा अनुभव करता रहा हूं
कि मैं अपने चारों ओर घट
रही घटनाओं, सर्व-अस्तित्व
तथा उनकी भवितव्यता के साथ अनुन्मोचनीय रूप से जुड़ा हुआ हूं । सभी
घटनाएं दो बार घटित होती
है- प्रथमत: घटित
होने के समय बाह्यरूप
में, उसके
बाद औचक रूप से, जिसकी आवृत्ति मेरे भीतर होती
रहती है।
सर्व-अस्तित्व- मनुष्य,नदियां,वृक्ष,पाषाण और हमारे सामूहिक अचिरता के सारे सूत्र परिहार्य रूप में
मुझसे सहबद्ध हैं। साथ ही, मेरा अंत:करण प्रत्येक को प्रत्येक को, प्रत्येक अस्तित्व को अंतरंगता प्रदान करता है और सबका सहभोक्ता भी होता है|
मेरी
कविता में सभी दारुण विपत्तियों
तथा उल्लासों, मुस्कानों और विषादों को झेलने के बाद जीवन के सांध्य-काल में मनुष्य द्वारा की जाने
वाली वह कामना है कि यदि पुनर्जन्म सत्य है तो वह इस नियति में, मानव
होने की नियति में, पुनर्जन्म ले ।
कविता
शब्दों की रचना है और शब्द सामाजिक स्मृति-चिन्ह
हैं। साथ ही वहां प्रयोक्ता के
स्वयं के अंत:करण की स्मृतियां और
कल्पनाएं भी हैं । यह विरासत चीत्कार तथा रिरियाने से लेकर प्रबल वाग्मिता तक, वेश्यालयों
की सौदेबाजी से लेकर अंतर्राष्ट्रीय कूटनीति तक व्याप्त समग्र मानव-इतिहास पर
आच्छादित है। एक
उत्तम कविता में प्रत्येक शब्द बोलता है ।
प्रत्येक शब्द अपरिहार्य होता है, अद्वितीय होता है । प्रत्येक
शब्द संयोजनों के असंख्य अर्थभेद से
अधिरोपित मुग्धकारी
होता है। एक उत्तम कविता में शब्द मौन बोलते हैं, सरलता
से, मौन भंग की आशंका से मानो डरते हुए
मुखरित होते हैं| वे अन्य
से द्वंद्व के
सोपान हो जाते हैं और ऐसे संयोग को
प्राय: नकारते नहीं । वे उस उर्जा से अलंकृत होते हैं जिसे लोर्का ने द्वंद्व की संज्ञा दी है, वह प्रच्छन्न ऊर्जस्विता जो
उन्हें तत्पर करती है और हमें भी प्रेरित करती है, वह रहस्यात्मक गुणवत्ता, जिसका
बोध केवल
अंतः प्रज्ञा से ही होता है|
एक उत्तम कविता
किसी उत्तम कलाकृति की तरह सत् की उपासना करती है,
निर्देशन नहीं करती। यह
हमारे विचार भंडार का परिवर्तन नहीं है । यह तो हमारे अनुभव के पुरोभाग का विस्तार है, हमारे
अस्तित्व की विस्तृति, हमारे प्रारब्ध की जागरूकता । कविता
का स्वरूप तो गत्यात्मक
है जो अपने शब्द-विन्यास के माध्यमों से सभी अस्तित्ववान तथ्यों की कुछ रहस्यात्मकता को संप्रेषित करती है। इसमें हमारी देह, हमारी आत्मा, हमारे
स्वप्न, हमारी
मृत्यु सभी समाहित हैं। यह
उद्बोधनों से
परिपूर्ण है- सुदूर
नक्षत्रों के स्वप्नलोक से लेकर मुख में भोजन के कौर के आस्वाद तक। कविता किसी अविद्यमान
को जन्म देने का मातृ-आह्लाद है।
अनुभव
की
व्यग्रता का सिंहावलोकन कविता को जन्म देता है । कविता शब्दों के कांपते हाथों में
अनुभव को इस आराधना के साथ धारण करने का आग्रह करती है कि प्रत्येक अनुभव स्व-आत्मोद्घाटन करें, वह उसके समक्ष एक पुरोहित की तरह
नहीं, करबद्ध
प्रार्थना में लीन एक
बालक के समान अभिमुख होती हैं। क्योंकि
उसकी उत्कंठा हमारे अस्तित्व की
अशाश्वतता को
अपने निष्ठुर अवसाद तथा परिहार्य इंद्रजाल के साथ पूर्णरूपेण ग्रहण करना है। यह उस
शाश्वत अर्द्ध-तिमिर में अन्वेषण
है जो समाप्त होने का नाम तक नहीं लेता। उसका प्रमाण अर्थ प्रांजल विस्मय जैसा है।
मेरी
धारणा है कि कविता अंततः उत्साह,निर्भीकता का विषय है। शास्त्रविद्या अथवा प्रज्ञा को उस
वास्तु के रूप में परिभाषित करना है जो आपको विमुक्त करती है- सा विद्या या विमुक्तये। मेरे लिए कविता परा विद्या अर्थात् परम विद्या है। यह
सभी तरह के भय-पशुओं, मानव, देवताओं, दानवों के भय,
यहां तक कि स्वयं के, हमारे
क्षुद्रतर, हीनता, स्व-भय से भी हमें मुक्ति प्रदान करती हैं और हमारे समय को चित्रित करने वाले
भय से
बढ़कर दूसरी कोई वस्तु नहीं है। भय से
ग्रसित हो शब्द सघोष अथवा वाग्मितापूर्ण
हो जाते हैं, छद्म आवरण से लिपटी हुई भय की अभिव्यक्ति वैसे ही है- जैसे कि एक अकेला व्यक्ति अंधेरे
पथ पर अपने आप को सांत्वना देने के लिए ऊंचे
स्वरों में गाता है।
मेरा मानना है कि कविता अनहंकार का भी विषय है। इसके अनौद्धत्य के दो स्रोत हैं। अपनी संसृति से किसी को भी न छोड़ने का दृढ़ संकल्प, और किसी भी पक्षधरता के प्रति अस्वीकृति,बल्कि सबके साथ समरसता। रचनात्मकता के क्षेत्र
में मनुष्य होने की सभी अपेक्षित भव्यता का आह्वान कविता करती है, और
साथ ही अवलोकन के लिए सभी प्रकार की स्वार्थपरक परितुष्टि का परित्याग भी कर देती है। इसकी
अनंहकारता इस
अनुभूति से भी प्रवाहमान होती है कि जो कुछ उसने व्यक्त किया है वह वही नहीं है जो
उसका मंतव्य है,
और शायद प्रकारांतर से पहले भी पूर्णत: वह व्यक्त किया जा चुका हो, जबकि बहुत
संभव यह भी है कि जो वह अभिव्यक्त करना
चाहता है उसमें से बहुत कुछ अवर्णनीय रह जाए । कह सकते हैं कि कविता एक
प्रकार से निरंहकार का
साहस है । कुल मिलाकर उन्मूलन और साथ ही आश्वासन हेतु अति- संवेदनशीलता तथा अनंहकारता इसकी शक्ति के स्रोत हैं ।
यदि यह उत्तम कविता किसी अनौद्धत्य से परिपूर्ण है तो इसमें शब्दों
के प्रति निष्ठा की मौत अनुभूति भी है। लगभग उसी प्रकार जैसी निष्ठा
कुम्हार की माटी के प्रति और साधारण बढ़ई की
सूखी लकड़ी के प्रति होती है।
एक
उत्तम कविता मानव संवेदना के संपूर्ण इतिहास से कोई कटुता नहीं ग्रहण करती बल्कि
वह तो केवल करुणा तथा आशा का अभावुकतापूर्ण
दृढ़ संकल्प ग्रहण करती है । यह सृजन से अभिभूत तथा इतिहास से उदासीन
होती है । यहां तक कि जब चींटी पैरों के नीचे दब आती है तो कविता जवाबदेही के लिए
देवताओं के सभी बंद दरवाजों पर
दस्तक भी देती है । तृण का एक दल जहां पहले अंकुरित हो
जाता है तो यह दो दलों के अंकुरित होने की प्रार्थना करती हैं। इसकी
परम प्रार्थना भी यही है कि प्रत्येक पाठक, प्रत्येक
मानव कवि बने।
मेरी
दृष्टि से कविता विचारों का अभियान या द्वंद्व
नहीं है। क्या संवेग का समाज शास्त्र भी
नहीं है और न ही यह अस्तित्व तथा
अनुरूपता का तत्व विज्ञान है । दरअसल
कविता,
वेगवान क्षणों पर
चिन्हित अनुभवों को पकड़ने की एक कोशिश है। यह उस स्मृति और कल्पना
की शक्ति तथा महिमा का अविष्कार है जो सनातनता में किसी घटना या किसी संवेग को उत्कीर्ण
करती है। यह
अपनी कुंठित साधारणता को एक रहस्य और एक चमत्कार में रूपांतरित कर देती है, ताकि
विलक्षण सार्वभौमिक
तथा व्यक्ति के संवेग की लघु, तीक्ष्ण प्रतिमूर्ति युग का मूलाधार बन सके।
हमारे
युग ने
हमें किसी भी रूप के रहस्य के प्रति, सभी
अस्तित्वों के
रहस्य के प्रति, हमारे
स्वयं के अस्तित्व के प्रति तीव्र खोज का पाठ पढ़ाया है। इसने ऐसा इसलिए किया है
क्योंकि व्यक्ति रहस्य की उपस्थिति के समक्ष अपने को तुच्छ यहां तक की शक्तिहीन अनुभव करता है, जबकि हमारे युग की यह धारणा है कि हम सभी शक्तिमान हैं। इसने
हमें उन मनोवेगों पर विश्वास न करने की शिक्षा दी है जो तर्कसंगत नहीं है। इसके विपरीत लेखकीय धारणा होती है
कि रहस्य न
केवल विश्व को गतिशील रखता है बल्कि यह हमारे स्वत्व के तत्व में है; और शब्दों का कार्य है इसके लिए
प्रतीकों को खोजना । हमारे युग ने हमें आशा एवं चमत्कार के प्रति पूर्णत: अविश्वास की शिक्षा दी है । आज
आशा की बात करना लगभग एक पाखंड है और हम क्या भूल गए हैं कि चमत्कार हमारी आंखों
के समक्ष, हमारी
साधारणता की उत्तरजीवी निरंतरता में,
हमारे अंतहीन सपनों के जटिल अवशेष में अभी भी घटित होता होगा, और वे मात्र पैराणिक काल में ही घटित नहीं हुए होंगे । साहित्य का संबंध किसी
साधारणता से है कि न असाधारणता से। और
जैसा कि जोयस ने कहा
है, समय आ
गया है कि इसी साधारणता में, अपने अंतस में और अपने चारों ओर के
संकेतों तथा अपने कूटबद्ध सपनों
के अवशेष में चमत्कार को खोजें । इसे उद्घाटित करने का उपाय है जीवन
से निराश न होने का दृढ़ निश्चय
अथवा आशा को न
त्यागना; किंतु
साथ ही अपने साधारण अनुभव की उपासना करना, जिसके
आगे शायद अंततः
कोई अर्थ, रहस्य, चमत्कार और स्वप्न नहीं होता।
रहस्य
की तो माँग ही है कि हम उसका मनन करें और भ्रम और वास्तविकता के बीच चलते संघर्ष
का समाधान करें और स्वप्न को मनुष्य के सम्मोह, उभयवादिता, त्याग, आकांक्षा, आशा तथा कल्पना-शक्ति के सभी रंगों
से दृश्यमान बनाएँ। इसका अधःसांवेदनिक संदेश
प्रीति तथा समागम की शक्ति को विमुक्त कर सकता है जो मृत्यु तथा परिशून्यन
को परास्त करती है । अपनी अंतरात्मा तथा साथ ही ‘अन्य’ के साथ अंतरगता के द्वार बंद कर हम
अपने को एकाकीपन तथा इन्द्रियार्थों से घिरे रहने की यंत्रणा से बचाए रख सकते हैं।
अपनी संपूर्ण विक्षिप्तता से पूर्व वान गॉग़ ने एक वृत्त में बार-बार चक्कर लगाते बंदियों का एक मार्मिक चित्र बनाया था। चित्र
(लैंडस्केप) में वृत्त
के बाहर जीवन्तता है, चांदनी
में नहाई धरती का एक दृश्य है, उन बंदियों को केवल यह करना है कि वे द्वार
खोलकर बाहर आ जाएँ।
किंतु फिर भी वे ऐसा
नहीं करते। जीवन तो मानवीय आत्मशक्ति का आवास है और कल्पना के विमुक्ति द्वार
खोलने का प्रतिषेध उसे एक कारागार के रूप में परिवर्तित कर सकता है ।
कल्पना
की यह
भावप्रवण यात्रा ही हमें अपनी अनिवार्य मानवीयता के सतत ह्रास से मुक्त करती है। नीत्शे ने उल्लेखनीय वक्तव्य दिया था कि स्वप्न में हम
अपनी वास्तविक सृजनात्मकता का इतना अधिक उपयोग कर लेते हैं कि हमारा जागृत जीवन
अत्यधिक अंकिचन हो जाता है। कला जीवन के स्वप्न तथा उसकी सृजनात्मकता की पुनः
स्थापना का अन्वेषण स्वीकार नहीं करती है। हममें से प्रत्येक में एक मानसिक
अवचेतन लोक होता है, जिससे हम बहुधा स्वीकार नहीं करते हैं। साहित्य उसी अंतरात्मा का दर्पण है
और वह उस विशेषाधिकृत
बिम्ब को उपस्थित करना चाहता है जिसे लेखक के
सर्जनशील व्यक्तित्व ने जन-जन का बना दिया है। सहचारिता को प्राप्त करने का यह
अंतिम कृत्य है ।
पन्द्रहवीं
शताब्दी के यूरोप में एक मठ में एक
ऐसा अधीर युवक आया जिसने मठाधीश से यह प्रश्न किया कि क्या वे वर्षानुवर्ष किये जा
रहे सतत तथा एकान्त ध्यान से कभी ऊबे नहीं? प्रमुख ने युवक का ध्यान पास के ही
एक वृक्ष पर बैठी कूजन करती सुंदर पंखों वाली एक चिड़िया की ओर आकृष्ट किया । युवक मुग्ध हो गया और
जैसे-जैसे चिड़िया एक वृक्ष से दूसरे वृक्ष पर उड़-उड़कर बैठती, वह उसे
निकट से देखने की कोशिश करने लगा । अनंतः थका-हारा वह मठ में वापस आ गया।
वहां उसे एक नये मठाधीश ने शांत भाव से बताया, “ प्रियवर, आपने एक पक्षी के मात्र अवलोकन में
चालीस वर्षों की लंबी अवधि व्यतीत कर दी!” तभी
कोई व्यक्ति युवक के लिए एक दर्पण ले आया और उसे उसमें यह देखकर निराशा हुई कि उसके सिर के सारे बाल सफेद हो गए हैं और कुछ दाँत भी गिर चुके हैं। तब
मठाधीश ने आगे कहा “प्रियवर, जब आप एक सुंदर पक्षी का अवलोकन
करते-करते यह नहीं जान पाये कि कैसे चालीस वर्षों की लंबी अवधि व्यतीत हो गई तो कोई
व्यक्ति जीवन को देखने और उसके कुछ अर्थ पाने-समझने की इच्छा से कैसे क्लांत हो
सकता है?”
प्रत्येक
निष्ठावान कवि अच्छी
तरह जानता समझता है कि यह विषमावस्था उसकी भी है और यही अन्वेषण भाषा की शुचिता के अन्वेषण की ओर
अपरिहार्य रूप से उसे अन्मुख करता है। वह भाषा जो दो उद्देश्यों की सहभागी हो सके-
यानी वह व्यक्ति के अस्तित्व के मर्म तक पहुंच सके और साथ ही अन्य के साथ संपर्क
हेतु एक मंच प्रदान कर सके। इसका आशय होगा कि एक शब्द के लिए व्यक्ति द्वारा अपना
लगभग संपूर्ण जीवन समर्पित कर देना, यह
अनुभव करते हुए कि आपको एक शब्द के परिष्कार के लिए संभवतः अपना संपूर्ण जीवन भी लगाना पड़
सकता है, बल्कि
कई-कई जीवन की आवश्यकता भी पड़ सकती है। यही मैं अपनी एक कविता का अंश उद्धृत कर
रहा हूँ :
एक शब्द गढ़ा जाएगा
इसलिए रंग बदलता है आकाश हजार बार
गाता है पवन कई तरह से गीत
रोता है, मुस्कुराता है समुद्र
टकराता है गूंगी रेत से
ताकती रहती है चातक-सी सर्वंसहा
वसुन्धरा
एक शब्द गढ़ा जाएगा
इसके लिए है जरूरी
सौ जन्म और सौ मृत्यु
(नीरवता और कवि)
प्रशस्ति
भारतीय
ज्ञानपीठ वर्ष 1993 का ज्ञानपीठ पुरस्कार ओड़िया के यशस्वी लेखक डॉ॰ सीताकान्त
महापात्र को भारतीय साहित्य की श्रीवृद्धि में वर्ष 1973-92 के बीच उनके उत्कृष्ट
योगदान के लिए समर्पित करता है।
सन्
1937 में जन्मे डॉ॰ सीताकान्त महापात्र की सारस्वत साधना का उनके प्रथम
काव्य-संकलन ‘दीप्ति
ओ द्युति’ (1963) के साथ हुआ। उनके अगले दो संकलन ‘अष्टपदी’ (1967) और ‘शब्दर
आकाश’(1971) क्रमश: राज्य तथा केंद्रीय साहित्य अकादमियों
द्वारा पुरस्कृत हुए। अब तक उनके 12 काव्य-संकलन, 4
निबंध-संग्रह,1 यात्रावृत्त और कुछ अनुवाद भी प्रकाशित हो
चुके है। साथ ही अँग्रेजी में उनकी 30 रचनाएँ,मुख्यत: चिंतनपरक,प्रकाशित हैं। पिछले बीस वर्षों में प्रकाशित उनकी प्रशस्त रचनाओं में ‘समुद्र’(1977), ‘अनेक शरत’(1981), ‘समयर शेष नाम’(1984) और ‘फेरि आसिबार बेल’ (1991) विशेष उल्लेखनीय है।
महापात्र
का काव्य-दर्शन समय-निरपेक्ष और समाज सापेक्ष है। उसमें संवेदनशीलता की सात्विक
जिज्ञासा है,‘अहम्’ और ‘इदम्’ का तात्विक विवेचन है और पौराणिक कथ्य एवं सनातन सत्य का रसनिर्भर
प्रतिपादन है। पाश्चात्य साहित्य में निष्णात होते हुए भी सीताकान्त की वाणी में
देश की मृण्मय माधुरी की मनमोहन सुगंध मिलती है। देश-विदेश की अनेक भाषाओं में
महापात्र की कविता के अनुवाद उपलब्ध हैं। प्रशासनिक दायित्व का पालन करते हुए
उन्होंने ग्रामीण और जन-जातीय जीवन की सहज मार्मिकता का जो गहन अनुभव प्राप्त किया
है, उसे उन्होंने अपने कृतित्व में उपबृंहित किया है।
डॉ॰
महापात्र को अनेक साहित्यिक मान-सम्मान प्राप्त हुए हैं जिनमें साहित्य अकादमी
पुरस्कार के अतिरिक्त सोवियत लैंड नेहरू पुरस्कार,कुमारन् आशान् पुरस्कार,सारला पुरस्कार आदि सम्मिलित हैं।
डॉ॰
सीताकान्त महापात्र का भावी जीवन भव्य अनुभूतियों और नव्य अभिव्यंजना से समृद्ध हो,यही मंगल-कामना है।
नयी दिल्ली कर्ण सिंह
अशोक कुमार जैन
22 मार्च 1994 अध्यक्ष अध्यक्ष
प्रवर
परिषद
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